UP Board Class 12 Previous Year Samanya Hindi Question Paper – यूपी बोर्ड कक्षा-12 संस्कृत गद्य खंड पर आधारित महत्वपूर्ण प्रश्न

Share This Post

UP Board Class 12 Previous Year Samanya Hindi Question Paper – यूपी बोर्ड कक्षा-12 संस्कृत गद्य खंड पर आधारित महत्वपूर्ण प्रश्न : 

इस पोस्ट में मैंने 12वी सामान्य हिन्दी, यूपी बोर्ड इंटरमीडिएट संस्कृत पद खंड पर आधारित प्रश्न को बताया है। जो बोर्ड परीक्षा में पिछले 2019 से लेकर आज तक पूछें गये है। यहां दिये गये सभी प्रश्न सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रश्न पिछले कई वर्षों से लगातार यूपी बोर्ड परीक्षा में पूछा जा रहा है। इसलिए यहां दिए गए सभी प्रश्नों को जरूर तैयार कर ले।

UP Board Class 12 Previous Year Samanya Hindi Question Paper - यूपी बोर्ड कक्षा-12 संस्कृत गद्य खंड पर आधारित महत्वपूर्ण प्रश्न

दिए गए संस्कृत गद्यांशों में से किसी एक का सन्दर्भ हिन्दी में अनुवाद कीजिए।

प्रश्न-1

धन्योऽयं भारतदेशः यत्र समुल्लसति जनमानस पावनी। भव्यभावोद्व्याविनी, शब्द-सन्देह प्रसविनी सुभारती। विद्यामानेषु निखिलेष्वपि वाङ्मयेषु अस्थाः वाङ्मयं सर्वश्रेष्ठ सुसम्पन्नं च वर्तते। इयमेव भाषा संस्कृतनाम्नापि लोके प्रधिता अस्ति। अस्मांक रामायण महाभारताद्यैतिहासिकग्रन्थाः, चत्वारो वेदाः, सर्वाः उपनिषद्ः अष्टदशपुराणनि, अन्यानि च महाकाव्यनाट्यादीनि अस्यामेव भाषायां लिखितानि सन्ति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : धन्य है, यह भारत देश जहां जनमानस को पावन (पवित्र) करने वाली, अच्छे भाव को उत्पन्न करने वाली, शब्द समूह को जनने वाली देववाणी संस्कृत शोभायमान है। विद्यमान समस्त साहित्य में इसका साहित्य सर्वश्रेष्ठ और सुसंपन्न है। यही भाषा संसार में संस्कृत नाम से भी प्रसिद्ध है। इसी भाषा में हमारे रामायण, महाभारत आदि ऐतिहासिक ग्रंथ, चारों वेद, समस्त उपनिषद, अठारह पुराण तथा अन्य महाकाव्य, नाटक आदि लिखे गए हैं।

 

प्रश्न-2

महामना विद्वान् वक्ता, धार्मिकों नेता, पटुः पत्रकारश्चासीत्। परमस्य सर्वोच्च गुणः जनसेवैव आसीत्। यत्र कुत्रापि अयं जनान् दुःखितान् पीड्यमानांश्चापश्यत् तत्रैव सः शीघ्रमेव उपस्थितः, सर्वविधं सहाय्यञ्च अकरोत्। प्राणिसेवा अस्य स्वभाव एवासीत्।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीय:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : महामना विद्वान वक्ता, धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किंतु जन सेवा ही इनका सर्वोच्च गुण था। यह जहां कहीं भी लोगों को दुखी और पीड़ित देखते, वहां शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा करना ही इनका स्वभाव था।

 

प्रश्न-3

सा शकुनिसंघे अवलोकयन्ती मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं में स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत। मयूर : ‘अद्यापि में तावम्बलं न पश्यसि’ इति अतिगर्वेण लज्जां च त्यक्त्वा तावन्महतः शकुनिसंघस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान्। नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्ण राजहंसः लज्जितः ‘अस्य नैव ह्वीः अस्ति न बर्हाणाम् समुत्थाने लज्जा नास्मै गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के नृत्यजातकम् से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : हंस कुमारी ने पक्षी समुदाय पर दृष्टि डालते हुए नीलमणि के रंग की गर्दन और रंग बिरंगी या विचित्र पंखों वाले मूर्ख देखकर कहा कि ‘यह मेरा स्वामी हो!’ मोर ने (यह कहते हुए की) ‘आज भी तुम मेरा बाल नहीं दिखती हो’ (अर्थात अभी तुमने मेरा पराक्रम देखी ही कहां है?), कहकर वह बड़े गर्व से निर्लज्जतापूर्वक पक्षी समुदाय के बीच पंख फैला कर नाचना शुरू कर दिया और नाचते हुए नग्न हो गया। सुवर्ण हंसते लज्जित होकर कहा, ‘इसे तो ना अंदर का संकोच और ना ही पंखों को उठाने में बाहर की लज्जा। इस निर्लज को अपनी पुत्री नहीं दूंगा। यह मेरी पुत्र से विवाह योग्य नहीं है।

प्रश्न-4

अयं प्रयागे एव संस्कृतपाठशालायाम् राजकीय विद्यालये म्योर सेन्ट्रल महाविद्यालये च शिक्षां प्राप्य अत्रैव राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरब्धवान्। युवक मालवीयः स्वकीयेन प्रभावपूर्ण भाषणेन जनानां मनांसि अमोहयत्। अतः अस्य सुहृढ तं प्रा‌ड्विवाक पदवीं प्राप्य देशस्य श्रेष्ठतरां सेवां कर्तुं प्रेरितवन्तः । तद्नुसारम् अयं विधिपरीक्षामुत्तीर्य प्रयागस्थे उच्चन्यायालये प्राड्विवाककर्म कर्तुमारभत्।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीय:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : इन्होंने प्रज्ञा के ही संस्कृत पाठशाला, राजकीय विद्यालय और म्योर केंद्रीय महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके यह राजकीय विद्यालय में पढ़ना प्रारंभ कर दिया। युवक मालवीय ने अपने प्रभावशाली भाषण से लोगों का मन मोह लिया। अतः उनके मित्रों ने इनको वकील की पदवी को प्राप्त करके देश की अधिक श्रेष्ठ सेवा करने को प्रेरित किया। इसके अनुसार इन्होंने वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रयाग उच्च न्यायालय में वकालत आरंभ कर दी।

Examwalah

प्रश्न-5

धन्योऽयं; भारतवर्षः यत्र समुल्लसति जनमानसपावनी भव्यभावोद्भाविनी शब्द-सन्दोहप्रसविनी सुरभारती। विद्यमानेषु निखिलेष्वपि वाङ्मयेषु अस्याः वाङ्मयं सर्वश्रेष्ठ सुसम्पन्नं च वर्तते। इयमेव भाषा संस्कृत नाम्नाऽपि लोके प्रथिता अस्ति। अस्मांक रामायण-महाभारताद्यैतिहासिकग्रन्थाः चत्वारो वेदाः सर्वा उपनिषदः अष्टादशपुराणनि अन्यानि च महाकाव्य-नाट्यादीनि अस्यामेव भाषायां लिखितानि सन्ति। इयमेव भाषा सर्वासामार्य भाषाणां जननीति मन्यते भाषातत्त्व-विद्भिः।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : धन्य है, यह भारत देश जहां जनमानस को पावन (पवित्र) करने वाली, अच्छे भाव को उत्पन्न करने वाली, शब्द समूह को जनने वाली देववाणी संस्कृत शोभायमान है। विद्यमान समस्त साहित्य में इसका साहित्य सर्वश्रेष्ठ और सुसंपन्न है। यही भाषा संसार में संस्कृत नाम से भी प्रसिद्ध है। इसी भाषा में हमारे रामायण, महाभारत आदि ऐतिहासिक ग्रंथ, चारों वेद, समस्त उपनिषद, अठारह पुराण तथा अन्य महाकाव्य, नाटक आदि लिखे गए हैं। यही भाषा समस्त ‘आर्य भाषाओं की जननी है’ ऐसा भाषा तत्व विशारद मानते हैं।

 

प्रश्न-6

आधुनिके जगति पञ्चशील सिद्धान्ताः नवीनं राजनैतिकं स्वरूपं ग्रहीतवन्तः। एवं च व्यवस्थिताः-

किमपि राष्ट्रं कस्यचनान्यस्य राष्ट्रस्य आन्तरिकेषु विषयेषु कीदृशनपि व्याद्यातं न करिष्यति। 

प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं प्रभुसत्तां प्रादेशिकीमखण्डतां च सम्मानयिष्यति। 

प्रत्येकराष्ट्र परस्परं समानतां व्यवहरिष्यति। किमपि राष्ट्रमपरेण नाक्रंस्यते । 

सर्वाण्यपि राष्ट्राणि मिथः स्वां-स्वां प्रभुसत्तां शान्त्या रक्षयिष्यन्ति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘पंचशील-सिद्धांता:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : आधुनिक जगत में पंचशील के सिद्धांतों ने नव राजनीति स्वरूप धारण कर लिया है तथा वे इस प्रकार निश्चित किए गए हैं।

  • कोई भी राष्ट्र किसी भी दूसरे राष्ट्र के आंतरिक विषयों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा।
  • प्रत्येक राष्ट्र परस्पर प्रभु सत्ता तथा प्रादेशिक अखंडता का सम्मान करेगा।
  • प्रत्येक राष्ट्र परस्पर समानता का व्यवहार करेगा।
  • कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से आक्रांत नहीं होगा।
  • सभी राष्ट्र अपनी-अपनी प्रभु सट्टा की शांति पूर्व रक्षा करेंगे।

प्रश्न-7

अतीते प्रथम कल्पे जनाः एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्तम्। सर्वाकारपरिपूर्ण पुरुषं राजानमकुर्वन् । चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एक सिंह राजानमकुर्वन् । ततः शकुनिगणाः हिमवत् – प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च।’ अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते परस्परमवलोकयन्तः एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं न रोचते’ इत्यवोवोचन।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम’ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : प्राचीन काल में प्रथम युग के लोगों ने एक विद्वान सौभाग्यशाली एवं सर्वगुण संपन्न पुरुष को राजा बनाया। चौपायों (पशुओं) ने भी इकट्ठे होकर एक शेर को जंगल का राजा। उसके बाद हिमालय प्रदेश में एक चट्टान पर एकत्र होकर पक्षी गाने ने कहा “मनुष्यों में राजा जाना जाता है और चौपायों में भी, किंतु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। बिना राजा के रहना उचित नहीं। हमें भी एक को राजा के पद पर बिठाना चाहिए।” दस्त पश्चात उन सब ने एक दूसरे पर दृष्टि डालते हुए एक उल्लू को देखकर कहा “हमें यह पसंद है।”

प्रश्न-8

हिन्दी-संस्कृतावाङ्ग्लभाषासु अस्य समानः अधिकारः आसीत्। हिन्दी-हिन्दुहिन्दुस्थानानामुत्थाना य अयं निरन्तरं प्रयत्नमकरोत। शिक्षयैव देशे समाजे च नवीनः प्रकाशः उदेति अतः श्री मालवीयः वाराणस्यां काशीविश्वविद्यालस्य संस्थापनमकरोत ।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीय:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में इनका समान अधिकार था। हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान के उत्थान के लिए इन्होंने निरंतर प्रयास न किया। शिक्षा से ही देश और समाज में नवीन प्रकाश उदय होता है, अतः श्री मालवीय जी ने वाराणसी में काशी विश्वविद्यालय की स्थापना की। 

प्रश्न-9

ततः कदाचिद् द्वारपाल आगत्य महाराजं भोजं प्राह- ‘देव, कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि वर्तते’ इति। राजा ‘प्रवेशय’ इति प्राह । ततः प्रविष्टः कविः भोजमावलोक्य अद्य में दारिद्रयनाशो भविष्यतीति मत्वा तुष्टो हर्षणिमुमोच।

उत्तर- संदर्भ : यह संस्कृतांश संस्कृत दिग्दर्शिका के ‘भोजास्यौदार्यम्’ शीर्षक पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : इसके बाद कभी द्वारपाल ने आकर महाराज भोज से कहा, देव! केवल लंगोटी पहने अति दरिद्र एक विद्वान द्वारा पर खड़े हैं। राजा बोले प्रवेश कराओ। तब प्रविष्ट होकर उस कवि ने भोज को देखकर ‘आज मेरी दरिद्रता का नाश हो जाएगा’यह मानकर प्रसन्न हो खुशी के आंसू बहाये।

 

प्रश्न-10

याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमुवाच – मैनेयि ! उद्यास्यन अहम् अस्मात् स्थानादस्मि। ततस्ते अनया कात्यायन्या विच्छेदं करवाणि इति। मैत्रेयी उवाच-यदि इदं सर्वा पृथ्वी वित्तेन पूर्णा स्यात् तत् किं तेनाहममृतास्यामिति। याज्ञवल्क्य उवाच-नेति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘आत्मज्ञ एवं सर्वज्ञ:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से कहा, ‘मैत्रेयी! मैं इस स्थान अर्थात गृहस्थाश्रम से ऊपर अर्थात परिव्राज्य आश्रम जाने वाला हूं। अतः तुम्हारी संपत्ति का इस अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी से बटवारा कर दूं। मैत्रेयी ने कहा,‘यदि सारी पृथ्वी धन से परिपूर्ण हो जाए तो भी क्या मैं उसे अमर हो जाऊंगी?’ याज्ञवल्क्य बोले – नहीं। 

 

प्रश्न-11

यथैवोपकरणवतां जीवनं तथैव ते जीवनं स्यात् । अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन इति । सा मैत्रेयी उवाच – येनाहं नामृता स्याम किमहं तेन कुर्याम्। यदेव भगवान् केवलममृतत्त्वसाधनं जानाति, तदेव में ब्रूहि । याज्ञवल्क्य उवाच- प्रिया नः सती त्वं प्रियं भाषसे। एहि, उपविश, व्याख्यास्यामि ते अमृतत्त्वसाधनम्।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘आत्मज्ञ एवं सर्वज्ञ:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : तुम्हारा भी जीवन वैसा ही हो जाएगा जैसे साधन संपन्नों का जीवन होता है। संपत्ति से अमरता की आशा नहीं है। मैत्रेयी बोली, ‘मैं जिससे अमर न हो सकूंगी भला उसका क्या करूंगी? भगवन! आप जो अमरता का साधन जानते हैं केवल वही मुझे बताएं।’ याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘तुम मेरी प्रिय हो और प्रिया बोल रही हो। आओ बैठो मैं तुमसे अमृत तत्वों के साधन की व्याख्या करूंगा।’

प्रश्न-12

बौद्धयुगे इमे सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ता आसन् । परमद्य इसे सिद्धान्ताः राष्ट्राणां परस्परमैत्रीसहयोगकारणनि, विश्ववन्धुत्वस्य विश्वशान्तेश्च साधनानि सन्ति। राष्ट्रनायकस्य श्रीजवाहरलालनेहरूमहोदयस्य प्रधानमन्त्रित्वकाले चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पच्चशीलसिद्धान्तानधिकृत्य एवाभवत्। यतो हि उभावपि देशौ बौद्धधमें निष्ठावन्तौ । आधुनिके जगति पच्चशीलसिद्धान्ताः नवीनं राजनैतिकं स्वरूपं गृहीतवन्तः । एवं च व्यवस्थिता: 

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘पंचशील-सिद्धांता’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : बौद्धकाल में ये सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के उत्थान के लिए प्रयुक्त किए जाते थे, किन्तु आज ये सिद्धान्त राष्ट्रों की परस्पर मैत्री एवं सहयोग के कारण (हेतु) तथा विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के साधन हैं।

राष्ट्र के नायक श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के प्रधानमन्त्रित्व काल में पंचशील के सिद्धान्तों को स्वीकार करके ही चीन देश के साथ भारत की मित्रता हुई थी, क्योंकि दोनों ही राष्ट्र बौद्ध धर्म में निष्ठा रखने वाले हैं। आधुनिक जगत में पंचशील के सिद्धान्तों ने नव राजनीविक स्वरूप धारण कर लिया है तथा वे इस प्रकार निश्चित किए गए हैं।

 

प्रश्न-13

संस्कृतस्य साहित्यं सरसं, व्याकरणञ्च सुनिश्चितम्। तस्य गद्य पद्ये च लालित्यं, भावबोधसामर्थ्यम, अद्वितीयं श्रुतिमाधुर्यञ्च वर्तते। किं बहुना चरित्रनिर्माणार्थ यादृशी, सत्प्रेरणा संस्कृतवाड्मयं ददाति न तादृशीम् किञ्चिदन्यत्। मूलभूतानां मानवीयगुणानां यादृशी विवेचना संस्कृतवाड्यमं वर्तते नान्यत्र तादृशी । दया, दानं, शौचम्, औदार्यम् अनसूया, क्षमता अन्ये चानेके गुणाः अस्य अहित्यस्य अनुशीलनेन सञ्जायन्ते।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : अनुवाद-संस्कृत-साहित्य सरस है और इसका व्याकरण सुनिश्चित है। इसके गद्य और पद्य में लालित्य भावों को स्पष्ट करने की शक्ति और अनुपम श्रुतिमधुरता है। अधिक कहने से क्या, चरित्र-निर्माण के लिए जैसा विवेचन संस्कृत-साहित्य देता है, वैसी प्रेरणा किसी दूसरे साहित्य में नहीं है। मौलिक मानवीय गुणों का जैसा विवेचन संस्कृत-साहित्य में है, दूसरे साहित्य में नहीं है। दया, दान, पवित्रता, उदारता, निन्दा न करना, क्षमा और दूसरे अनेक गुण इस साहित्य के अनुशीलन से उत्पन्न होते हैं।

 

प्रश्न-14

महामनस्विनः मदनमोहदनमालवीयस्य जन्म प्रयागे प्रतिष्टितपरिवारेऽभवत्। अस्य पिता पण्डितव्रजनाथमालवीयः संस्कृतस्यः विद्वान् आसीत्। अयं प्रयागे एवं संस्कृतपाठशालायाम् राजकीय विद्यालये म्योरसेन्ट्रल महाविद्यालये च शिक्षां प्राप्य अत्रैव राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरब्धवान्। युवकः मालवीयः स्वकीयेन प्रभावपूर्णभाषणेन जनानां मनांसि अमोहयत्। अतः अस्य सुहृदः तं प्राड्विवाकपदवीं प्राप्य देशस्य श्रेष्ठतरां सेवां कर्तुं प्रेरितवन्तः । तदनुसारं अयं विधिपरीक्षामुत्तीर्य प्रयागस्ये उच्चन्यायालये प्रा‌ड्विवाककर्म कर्तुमारभत।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीय:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : अ्महान मनस्वी मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयाग में प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पिता पण्डित ब्रजनाथ मालवीय संस्कृत के सम्माननीय विद्वान थे। इन्होंने प्रयाग के ही संस्कृत पाठशाला, राजकीय विद्यालय और म्योर सेण्ट्रल महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके यहाँ राजकीय विद्यालय में पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। युवक मालवीय ने अपने प्रभावशाली भाषण से लोगों का मन मोह लिया। अतः उनके मित्रों ने इनको ‘वकील’ की पदवी को प्राप्त करके देश की अधिक श्रेष्ठ सेवा करने को प्रेरित किया। इसके अनुसार उन्होंने वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रयाग उच्च न्यायालय में वकालत आरम्भ कर दी।

प्रश्न-15

संस्कृतस्य साहित्यं सरसं, व्याकरणञ्च सुनिश्चितम्। तस्य गद्ये पद्ये च लालित्यं, भावबोधसामर्थ्यम्, अद्वितीयं श्रुतिमाधुर्यञ्च वर्तते। किं बहुना चरित्रनिर्माणार्थम् यादृशी सत्प्रेरणा संस्कृतवाङ्मयं ददाति तादृशीम् किञ्चिदन्यत्।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : अनुवाद-संस्कृत-साहित्य सरस है और इसका व्याकरण सुनिश्चित है। इसके गद्य और पद्य में लालित्य भावों को स्पष्ट करने की शक्ति और अनुपम श्रुतिमधुरता है। अधिक कहने से क्या, चरित्र-निर्माण के लिए जैसा विवेचन संस्कृत-साहित्य देता है, वैसी प्रेरणा किसी दूसरे साहित्य में नहीं है। 

प्रश्न-16

अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदाः सिंहं राजानमकुर्वन। मत्स्या आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्ण हंसम्। तस्य पुनः सुवर्णराजहंस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत । स तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्त्तिरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘नृत्यजातकम्’ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : प्राचीन काल के प्रथम युग में पशुओं ने शेर को राजा बनाया। मछलियों ने आनंद मछली को तथा पक्षियों ने स्वर्ण हंस को। इस स्वर्ण हंस की पुत्री हंस पोती का आती रूपवती थी। उसने उस वर अर्थात अधिकार दिया कि वह अपने मन के अनुरूप पति का वरण करें।

प्रश्न-17

संस्कृतस्य साहित्यं सरसं, व्याकरणञ्च सुनिश्चितम्। तस्य गद्ये पद्ये च लालित्यं, भावबोधसामर्थ्यम्, अद्वितीयं श्रुतिमाधुर्यञ्च वर्तते। किं बहुना चरित्रनिर्माणार्थं यादृशी सत्प्रेरणा संस्कृतवाङमयं ददाति न तादृशीं किञ्चिदन्यत्। मूलभूतानां मानवीगुणानां यादृशी विवेचना संस्कृतसाहित्ये वर्तते, नान्यत्र तादृशी । दया, दानं, शौचम्, औदार्यम्, अनसूया, क्षमा, अन्ये चानेके गुणाः अस्य साहित्यस्य अनुशीलनेन सञ्जायन्ते। संस्कृत साहित्यस्य आदिकविः वाल्मीकिः महर्षिव्यासः, कविकुलगुरुः कालिदासः अन्ये च भास भारवि भवभूत्यादयो महाकवयः स्वकीयैः ग्रन्थरलैः अद्यापि पाठकानां हृदि विराजन्ते।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : संस्कृत-साहित्य सरस है और इसका व्याकरण सुनिश्चित है। इसके गद्य और पद्य में लालित्य भावों को स्पष्ट करने की शक्ति और अनुपम श्रुतिमधुरता है। अधिक कहने से क्या, चरित्र-निर्माण के लिए जैसा विवेचन संस्कृत-साहित्य देता है, वैसी प्रेरणा किसी दूसरे साहित्य में नहीं है। मौलिक मानवीय गुणों का जैसा विवेचन संस्कृत-साहित्य में है, दूसरे साहित्य में नहीं है। दया, दान, पवित्रता, उदारता, निन्दा न करना, क्षमा और दूसरे अनेक गुण इस साहित्य के अनुशीलन से उत्पन्न होते हैं। संस्कृत साहित्य के आदि कवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, कभी कुलगुरू कालिदास और दूसरे भास, मार्ग, भवभूति आदि महाकवि के ग्रंथ आज भी पाठकों के हृदय में विराजमान है।

 

प्रश्न -18

याज्ञवल्क्य उवाच – न वा अरे मैत्रेयि ! पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति । आत्मनस्तु वै कामाय पतिः प्रियो भवति । न वा अरे, जायायाः । कामाय जाया प्रिया भवति, आत्मनस्तु वै कामाय जाया प्रिया भवति । न वा अरे, पुत्रस्य वित्तस्य च कामाया पुत्रो वित्तं वा प्रियं भवति, आत्मनस्तु वै कामाय पुत्रो वित्तं वा प्रियं भवति । न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति, आत्मनस्तु वै कामाय सर्वं प्रियं भवति ।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘आत्मज्ञ एवं सर्वज्ञ:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : याज्ञवल्क्य बोले, “अरी मैत्रेयी ! (पत्नी को) पति, पति की कामना (इच्छापूर्ति) के लिए प्रिय नहीं होता। पति तो अपनी ही कामना के लिए प्रिय होता है। अरी! न ही (पति को) पत्नी, पत्नी की कामना के लिए प्रिय होती है, (वरन्) अपनी कामना के लिए ही पत्नी प्रिय होती है।

अरी! पुत्र एवं धन की कामना के लिए पुत्र एवं धन, प्रिय नहीं होते, (वरन्) का जीवन अपनी ही कामना के लिए पुत्र एवं धन प्रिय होते हैं। सबकी कामना के लिए सब प्रिय नहीं होते, सब अपनी ही कामना के लिए प्रिय होते हैं। 

 

प्रश्न-19

संस्कृतस्य साहित्यं सरसं, व्याकरणञ्च सुनिश्चितम्। तस्य गद्य पद्ये च लालित्यं, भावबोध सामर्थ्यम्, अद्वितीयं श्रुतिमाधुर्यञ्च वर्तते। किं बहुना चरित्र निर्माणार्थ यादृशी सत्प्रेरणा संस्कृतवाङ्मयं ददाति न तादृशीम् किञ्चिदन्यत्। मूलभूतानां मानवीय गुणानां यादृशी विवेचना संस्कृतसाहित्ये वर्तते नान्यत्रं तादृशी।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : संस्कृत-साहित्य सरस है और इसका व्याकरण सुनिश्चित है। इसके गद्य और पद्य में लालित्य भावों को स्पष्ट करने की शक्ति और अनुपम श्रुतिमधुरता है। अधिक कहने से क्या, चरित्र-निर्माण के लिए जैसा विवेचन संस्कृत-साहित्य देता है, वैसी प्रेरणा किसी दूसरे साहित्य में नहीं है।

 

प्रश्न-20

बौद्धयुगे इमे सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ता आसन्। परमद्य इमे सिद्धान्ताः राष्ट्राणां परस्पर मैत्रीसहयोगकारणानि, विश्वबन्धुत्वस्य विश्वशान्तेश्च साधनानि सन्ति। राष्ट्रनायकस्य श्री जवाहरलालनेहरूमहोदयस्य प्रधानमन्त्रित्वकाले चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशीलसिद्धान्तानधिकृत्य एवाभवत्। यतो हि उभावपि देशौ बौद्धधमें निष्ठावन्तौ ।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘पंचशील-सिद्धांता’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : बौद्धकाल में ये सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के उत्थान के लिए प्रयुक्त किए जाते थे, किन्तु आज ये सिद्धान्त राष्ट्रों की परस्पर मैत्री एवं सहयोग के कारण (हेतु) तथा विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के साधन हैं।

राष्ट्र के नायक श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के प्रधानमन्त्रित्व काल में पंचशील के सिद्धान्तों को स्वीकार करके ही चीन देश के साथ भारत की मित्रता हुई थी, क्योंकि दोनों ही राष्ट्र बौद्ध धर्म में निष्ठा रखने वाले हैं। 

 

प्रश्न-21

संस्कृतसाहित्यस्य आदिकविः वाल्मीकिः, महर्षि व्यासः, कविकुलगुरुः कालिदासः अन्ये च भास-भारविभवभूत्यादयो महाकवयः स्वकीयैः ग्रन्थरत्नैः अद्यापि पाठकानां हृदि विराजन्ते। इयं भाषा अस्माभिः मातृसमं सम्माननीया वन्दनीया च, यतो भारतमातुः स्वातन्त्र्यं, गौरवम्, अखण्डत्वं सांस्कृतिकमेकत्वं च संस्कृतेनैव सुरक्षितुं शक्यन्ते। इयं संस्कृतभाषा सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा श्रेष्ठा चास्ति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : संस्कृत साहित्य के आदि कवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, कभी कुलगुरू कालिदास और दूसरे भास, मार्ग, भवभूति आदि महाकवि के ग्रंथ आज भी पाठकों के हृदय में विराजमान है। यह भाषा हमारे द्वारा माता के समान आदरणीय और वंदनीय हैं; क्योंकि भारत माता की स्वतंत्रता, गौरव, अखंडता और सांस्कृतिक एकता संस्कृत से ही सुरक्षित रखी जा सकती है।

 

प्रश्न-22

महापुरुषाः लौकिक प्रलोभनेषु बद्धाः नियत लक्ष्यात्र कदापि भ्रश्यन्ति। देशसेवानुरक्तोऽयं युवा उच्चन्यायालयस्य परिधो स्थातुं नाशक्नोत्। पण्डित मोतीलाल नेहरू लाला लाजपत राय प्रभृतिभिः अन्यैः राष्ट्रनायकैः सह सोऽपि देशस्य स्वतंत्रतासंग्रामेऽवतीर्णः। देहल्यां त्रयोविशतितमे कांग्रेसस्याधिवेशनेऽयम् अध्यक्षपदमलंकृतवान्। ‘रोलट एक्ट’ इत्याख्यस्य विरोधऽस्य ओजस्विभाषणं श्रुत्वा आंग्लशासकाः भीताः जाताः। बहुबारं कारागारे निक्षिप्तोऽपि अयं वीरः देशसेवाव्रतं नात्यजत्।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीय:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : महापुरुष सांसारिक प्रलोभनों में फैसकर अपने निश्चित लक्ष्य से कभी भी भ्रष्ट नहीं होते। देश की सेवा में अनुरक्त यह युवक उच्च न्यायालय की सीमा में न रह सका। पण्डित मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय आदि अन्य राष्ट्रनायकों के साथ वह भी देश के स्वतन्त्रता-संग्राम में उतर पड़े। दिल्ली में कांग्रेस के तेईसवें अधिवेशन में इन्होंने अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। ‘रौलट एक्ट’ (कानून) के विरोध में इनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेज शासक भयभीत हो गये। बहुत बार जेल में डाले जाने पर भी इस वीर ने देश सेवा-व्रत को नहीं छोड़ा।

 

प्रश्न -23

हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन् महति पाषाणतले संन्यपतन् । हंसराजः आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकं आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनिसंघे अवलोकयन्ती मणिवर्ण ग्रीवं, चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा अयं मे स्वामिको भवतु इत्यभाषत्। मयूरः ‘अद्यापि तावन्मे बलं’ न पश्यसि इति अतिगर्वेण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महतः शकुनि संघस्य मध्ये पक्षी प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान् नृत्यन् चा प्रतिच्छत्रोऽभूत्।

सुवर्णराजहंसः लज्जितः अस्य नैव हीः अस्ति, न वर्हाणां समुत्थाने लज्जा। नास्मै गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि इत्य कथयत्।

 

प्रश्न-24

संस्कृतसाहित्यस्य आदिकविः वाल्मीकिः, महर्षिव्यासः, कविकुलगुरुः कालिदासः अन्ये च भास-भारवि-भवभूत्यादयो महाकवयः स्वकीयै ग्रन्थरत्नैः अद्यापि पाठकानां हृदि विराजन्ते। इयं भाषा अस्माभिः मातृसमं सम्माननीया वन्दनीया च, यतो भारतमातुः स्वातन्त्र्यं, गौरवम्, अखण्डत्वं सांस्कृतिकमेकत्वञ्च संस्कृतेनैव सुरक्षितुं शक्यन्ते। इयं संस्कृतभाषा सर्वासु भाषासु प्राचीनतमा श्रेष्ठा चास्ति । ततः सुष्ठुक्तम् ‘भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाण भारती’ इति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : अनुवाद-संस्कृत-साहित्य के आदिकवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, कवि कुलगुरु कालिदास और दूसरे भास, भारवि, भवभूति आदि महाकवि के ग्रन्थ आज भी पाठकों के हृदय में विराजमान हैं। यह भाषा हमारे द्वारा माता के समान आदरणीय और वन्दनीय है; क्योंकि भारतमाता की स्वतन्त्रता, गौरव, अखण्डता और सांस्कृतिक एकता संस्कृत से ही सुरक्षित रखी जा सकती है। यह संस्कृत भाषा सब भाषाओं से प्राचीनतम और श्रेष्ठ है। इसलिए यह ठीक कहा गया है कि संस्कृत भाषा सब भाषाओं में मुख्य, मधुर और दिव्य है।

प्रश्न -25

याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमुवाच-मैत्रेयि। उद्यास्यन अहम् अस्मात् स्थानादस्मि । ततस्तेऽनया कात्यायन्या विच्छेदं करवाणि इति। मैत्रेयी उवाच-यदीयं सर्वा पृथ्वी वित्तेन पूर्जा स्यात् तत् किं तेनाहममृता स्यामिति । याज्ञवल्क्य उवाचन्नेति । यथैवोपकरणवतां जीवनं तथैव ते जीवनं स्यात्। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन इति। सा मैत्रेयी उवाच-येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्। यदेव भगवान् केवलममृतत्वसाधनं जानाति तदेव मे ब्रूहि।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘आत्मज्ञ एवं सर्वज्ञ:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से कहा, ‘मैत्रेयी! मैं इस स्थान अर्थात गृहस्थाश्रम से ऊपर अर्थात परिव्राज्य आश्रम जाने वाला हूं। अतः तुम्हारी संपत्ति का इस अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी से बटवारा कर दूं। मैत्रेयी ने कहा,‘यदि सारी पृथ्वी धन से परिपूर्ण हो जाए तो भी क्या मैं उसे अमर हो जाऊंगी?’ याज्ञवल्क्य बोले – नहीं। तुम्हारा भी जीवन वैसा ही हो जाएगा जैसे साधन संपन्नों का जीवन होता है। संपत्ति से अमरता की आशा नहीं है। मैत्रेयी बोली, ‘मैं जिससे अमर न हो सकूंगी भला उसका क्या करूंगी? भगवन! आप जो अमरता का साधन जानते हैं केवल वही मुझे बताएं।’

 

प्रश्न-26 

धन्योऽयम् भारतदेशः यत्र समुल्लसति जनमानस पावनी, भव्यभावोद्भाविनी, शब्द-सन्दोह-प्रसविनी सुरभारती। विद्यमानेषु निखिलेष्वपि वाङ्मयेषु अस्याः वाङ्मयम् सर्वश्रेष्ठं सुसम्पन्नं च वर्तते। इयमेव भाषा संस्कृतनाम्नापि लोके प्रधिता अस्ति।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘संस्कृतभाषाया:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : धन्य है, यह भारत देश जहां जनमानस को पावन (पवित्र) करने वाली, अच्छे भाव को उत्पन्न करने वाली, शब्द समूह को जनने वाली देववाणी संस्कृत शोभायमान है। विद्यमान समस्त साहित्य में इसका साहित्य सर्वश्रेष्ठ और सुसंपन्न है। यही भाषा संसार में संस्कृत नाम से भी प्रसिद्ध है।

प्रश्न-27

अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदाः सिंहं राजानमकुर्वन्। मत्स्या आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्णहंसम्। तस्य पुनः सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत । स तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्चितरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराजः तस्यै वरं दत्वा हिमवति शकुनि सङ्घ संन्यपतत्।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘नृत्यजातकम्’ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : प्राचीन काल के प्रथम युग में पशुओं ने शेर को राजा बनाया। मछलियों ने आनंद मछली को तथा पक्षियों ने स्वर्ण हंस को। इस स्वर्ण हंस की पुत्री हंस पोती का आती रूपवती थी। उसने उस वर अर्थात अधिकार दिया कि वह अपने मन के अनुरूप पति का वरण करें। हंसराज ने उसे व देकर हिमालय के पक्षियों के समुदाय को आमंत्रित किया।

 

प्रश्न-28 

महामना विद्वान् वक्ता धार्मिको नेता, पटुः पत्रकारश्चासीत्। परमस्य सर्वोच्चगुणः जनसेवैव आसीत्। यत्र कुत्रापि अयं जनान् दुःखितान् पीड्यमानांश्चापश्यत् तत्रैव सः शीघ्रमेव उपस्थितः सर्वविधं साहाय्याञ्च अकरोत्। प्राणिसेवा अस्य स्वभाव एवासीत्। अद्यास्माकं मध्येऽनुपस्थितोऽपि महामना मालवीयः स्वयशसोऽमूर्तरूपेण प्रकाशं वितरन् अन्धे तमसि निमग्नान् जनान् सन्मार्ग दर्शयन् स्थाने स्थाने जने जने उपस्थित एव।

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘महामना मालवीय:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : महामना विद्वान वक्ता, धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किंतु जन सेवा ही इनका सर्वोच्च गुण था। यह जहां कहीं भी लोगों को दुखी और पीड़ित देखते, वहां शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा करना ही इनका स्वभाव था।

आज हमारे बीच अनुपस्थित होकर भी महामना मालवीय अमूर्तरूप से अपने यश का प्रकाश बांटते हुए, गहन अंधकार में डूबे हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाते हुए स्थान-स्थान पर जन-जन के बीच।

 

प्रश्न-29

यथैवोपकरणवतां जीवनं तथैव ते जीवनं स्यात्। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन इति। सा मैत्रेयी उवाच-येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्। यदेव भगवान् केवलममृतत्वसाधनं जानाति, तदेव में ब्रूहि। याज्ञवल्क्य उवाच-प्रिया नः सती त्वं प्रियं भाषसे। एहि, उपविश व्याख्यास्यामि ते अमृतत्वसाधनम्। याज्ञवल्क्य उवाच-न वा अरे मैत्रेयी! पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति। आत्मनस्तु वै कामाय प्रतिः प्रियो भवति ।

 

उत्तर- संदर्भ : यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ’संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘आत्मज्ञ एवं सर्वज्ञ:’ पाठ से अवतरित है।

हिंदी अनुवाद : याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से कहा, ‘मैत्रेयी! मैं इस स्थान अर्थात गृहस्थाश्रम से ऊपर अर्थात परिव्राज्य आश्रम जाने वाला हूं। अतः तुम्हारी संपत्ति का इस अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी से बटवारा कर दूं। मैत्रेयी ने कहा,‘यदि सारी पृथ्वी धन से परिपूर्ण हो जाए तो भी क्या मैं उसे अमर हो जाऊंगी?’ याज्ञवल्क्य बोले – नहीं। तुम्हारा भी जीवन वैसा ही हो जाएगा जैसे साधन संपन्नों का जीवन होता है। संपत्ति से अमरता की आशा नहीं है। मैत्रेयी बोली, ‘मैं जिससे अमर न हो सकूंगी भला उसका क्या करूंगी? भगवन! आप जो अमरता का साधन जानते हैं केवल वही मुझे बताएं।’ याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘तुम मेरी प्रिय हो और प्रिया बोल रही हो। आओ, बैठो, मैं तुमसे अमृत तत्व के साधन की व्याख्या करूंगा।’ याज्ञवल्क्य बोले, ‘अरि मैत्रेयी! पति को, पति की कामना के लिए प्रिया नहीं होता। पति तो अपनी ही कामना के लिए प्रिया होता है। 

 

Leave a Comment