Fundamental Rights and Fundamental Duties in Hindi – मूल अधिकार और मौलिक कर्तव्य
इस पोस्ट में Fundamental Rights and Fundamental Duties in Hindi के बारे में इस पोस्ट में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है।
यदि आप Competitive Exam की तैयारी कर रहे हैं तो यह पोस्ट आपको एक बार जरूर पढ़ना चाहिए क्योंकि इसमें मूल अधिकार और मौलिक कर्तव्य से संबंधित संपूर्ण जानकारी दी गई है।
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दोस्तों पिछले पोस्ट में हम लोगों ने POLITY NOTES IN HINDI के अंतर्गत संविधान का निर्माण तथा विशेषताएं के बारे में जानकारी दी।
इस पोस्ट में निम्न टॉपिक को Cover किया गया है-
- मूल अधिकार का अर्थ
- संविधान में वर्णित मूल अधिकारों की विशेषताएं
- मूल अधिकारों का महत्व
- भारतीय संविधान में उल्लिखित मूल अधिकार
- मूल अधिकारों की विशेषताएं
- मौलिक अधिकारों का स्थगन
- मूल कर्तव्य
- मूल कर्तव्य का महत्व
मूल अधिकार का अर्थ (Meaning of fundamental rights)
मौलिक अधिकार राज्य की कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की निरंकुशता पर रोक लगाते हैं।
मूल अधिकार की प्रमुख परिभाषाएं निम्न है-
एम.वी. पायली के अनुसार- “मूल अधिकार एक ही समय पर शासकीय शक्ति से व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं तथा शासकीय शक्ति से व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं”
जी.एन.जोशी के अनुसार- “संविधान में मूल अधिकार के समावेश का यह उद्देश्य नहीं है कि उन्हें किसी भी परिस्थिति में बदल ना जा सके।
उद्देश्य सिर्फ इतना है कि उन्हें मूलभूत कानून का एक अंग बनकर ऊंची कानूनी मान्यता प्रदान की जाए,
जिससे चंचल बहुसंख्यक डाल विधि की साधारण प्रक्रिया से उनमें कमी या उनका लोप ना कर सके।”
संविधान में वर्णित मूल अधिकारों की विशेषताएं
(i) भारतीय नागरिकों को अन्य देशों की तुलना में विस्तृत मूल अधिकार प्राप्त है।
इन अधिकारों का उल्लेख 18 अनुच्छेदों के अंतर्गत किया गया है।
(ii) नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकार निरंकुश नहीं है, उन पर प्रतिबंध लगाए गए हैं।
(iii) मूल अधिकारों के पीछे न्यायालय के प्रवर्तन की शक्ति है तथा संविधान द्वारा मूल अधिकारों के उपयोग का पूर्ण आश्वासन दिया गया है।
(iv) भारतीय संविधान में प्राकृतिक अधिकारों की मानता नहीं है।
(v) भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकारों को संकट काल में स्थापित किया जा सकता है।
(vi) भारतीय संसद इन अधिकारों में आवश्यक संशोधन भी कर सकती है।
(vii) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार अब संकट काल में भी जीवन और शारीरिक स्वाधीनता के अधिकार को समाप्त अथवा सीमित नहीं किया जा सकता।
(viii) भारतीय संविधान में वर्णित जीवन रक्षा तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता संबंधी अधिकार सबको प्राप्त है, चाहे वह भारत का नागरिक हो या ना हो।
मूल अधिकारों का महत्व
मूल अधिकार प्रजातंत्र की आधारशिला एवं नागरिकों के सुखी जीवन के केंद्र बिंदु हैं।
डॉ भीमराव अंबेडकर के शब्दों में “मूल अधिकारों के अनुच्छेदों के बिना सविधान अधूरा रह जाएगा यह संविधान की आत्मा एवं हृदय हैं”
मूल अधिकारों के महत्व को निम्न रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-
- मूल अधिकार लोकतंत्र के आधार स्तंभ है। यह व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता और समानताओं की व्यवस्था करते हैं।
- मूल अधिकार नागरिकों को न्याय तथा उचित व्यवहार की सुरक्षा प्रदान करते हैं।
- भारत में लोकतंत्र की स्थापना की गई। यह व्यवस्था हमारे देश के लिए नई रही। इसलिए मूल अधिकारों का उल्लेख आवश्यक था।
इस संबंध में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था- “भारत में इन अधिकारों को विधानमंडल या सरकार की इच्छा पर छोड़ देना उचित नहीं है,
क्योंकि भारत में लोकतंत्र अब तक पूर्ण रूप से पनप नहीं पाया है इसलिए इन अधिकारों को संविधान में रख दिया गया।”
- मूल अधिकार किसी व्यक्ति विशेष वर्ग या दाल की मनमानी रोकने के प्रभावशाली माध्यम है।
भारतीय संविधान में उल्लिखित मूल अधिकार
भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 14 से 32 में नागरिकों को 7 मूल अधिकार प्रदान किए गए थे,
किंतु 44वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 1979 द्वारा संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है। अब संपत्ति का अधिकार केवल कानूनी अधिकार रह गया है।
इस प्रकार अब भारतीय नागरिकों को निम्न छह मूल अधिकार प्राप्त है-
क्र. सं. | मौलिक अधिकार | संविधान की अनुच्छेद संख्या |
1 | समानता का अधिकार | अनुच्छेद 14 से 18 तक |
2 | स्वतंत्रता का अधिकार | अनुच्छेद 19 से 22 तक |
3 | शोषण के विरुद्ध अधिकार | अनुच्छेद 23 से 24 तक |
4 | धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार | अनुच्छेद 25 से 28 तक |
5 | सांस्कृतिक तथा शिक्षा का अधिकार | अनुच्छेद 29 से 30 तक |
6 | संवैधानिक उपचारों का अधिकार | अनुच्छेद 32 |
महत्वपूर्ण बिंदु
1.पहले संपत्ति का अधिकार भी इसी श्रेणी में था जिसे 44वें संशोधन द्वारा मौलिक अधिकारों की श्रेणी से निकलकर मात्रा कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
2. 86वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21(क) के अंतर्गत शिक्षा का मौलिक अधिकार नया जोड़ा गया है।
- शिक्षा का मौलिक अधिकार अधिनियम वर्ष 2009 ई. में पारित हुआ था।
- इसे 1 अप्रैल 2010 ई. से संपूर्ण भारत में लागू कर दिया गया है।
- इसके अंतर्गत 14 वर्ष तक के सभी बालक बालिकाओं को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का उत्तरदायित्व होगा।
3.अनुच्छेद 21(क) के अंतर्गत इसका उल्लेख किया गया है अतः यह मौलिक अधिकारों की श्रेणी पानी से वंचित रह जाता है।
4.वर्तमान में भी मौलिक अधिकारों की संख्या 6 ही मानी जाएगी।
समता का अधिकार
भारतीय संविधान की दृष्टि में सभी नागरिक एक समान है। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक इस अधिकार का उल्लेख किया गया है।
इस अधिकार का अंतर्गत भारतीय नागरिकों को पांच प्रकार की क्षमता प्रदान की गई है-
1.विधि के समक्ष समता-
अनुच्छेद 14 में कहां गया है की विधि के समक्ष सभी नागरिक बराबर है।
विधि की दृष्टि में न कोई बड़ा है न कोई छोटा अर्थात राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति को विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
2.सामाजिक समानता
अनुच्छेद 15 में कहां गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
जैसे समाज की किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक स्थानों, दुकानों,
मनोरंजन-गृह, सार्वजनिक स्नान-घाटों, सड़कों आदि की उपयोग से वंचित नहीं किया जा सकेगा।
नोट- यह उल्लेखनीय है कि राज्य स्त्रियों तथा बच्चों को सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों,अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों आदि को विशेष सुविधाएं प्रदान कर सकेगा।
3.सरकारी पदों की प्राप्ति के लिए अवसर की समानता
अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि राजकीय सेवाओं या पदों पर नियुक्ति के संबंध में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी।
जाति, धर्म, जन्म-वंश, लिंग आदि के आधार पर किसी को भी अपात्र नहीं घोषित किया जा सकेगा।
4.अस्पृश्यता का अंत
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के द्वारा अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया है।
कोई व्यक्ति किसी को अछूत समझकर उसके साथ कोई भेदभाव करता है तो ऐसा आचरण विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
5.उपाधियों का अंत
अनुच्छेद 18 के अनुसार कोई भी भारतीय नागरिक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना विदेशी राज्य से कोई भी उपाधि स्वीकार न कर सकेगा।
सेना या शिक्षा संबंधी उपाधि का अतिरिक्त और कोई उपाधि राज्य भी प्रदान नहीं कर सकेगा।
उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 18 की इस व्यवस्था के बाद देश में 1950 ई. से भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री आदि उपाधियां भारत सरकार द्वारा प्रदान की जाती रही है।
1977 ई. में जनता पार्टी की सरकार ने इन उपाधियां को समाप्त कर दिया था,
किंतु 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा पुणे भारत रत्न हुआ अन्य अलंकारों को प्रदान करने की शुरुआत कर दी गई।
स्वतन्त्रता का अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 तक इस अधिकार का उल्लेख किया गया है।
अनुच्छेद 19 में छह प्रकार की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख है-
(i) भाषण व विचार की स्वतन्त्रता-
इसके अन्तर्गत भारत के प्रत्येक नागरिक को भाषण, लेखन, मुद्रण व विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता है।
(ii) शान्तिपूर्वक बिना हथियार के सभा करने की स्वतन्त्रता-
भारतीय नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त तो है, किन्तु राज्य द्वारा सार्वजनिक हित में इस पर रोक लगायी जा सकती है।
(iii) संघ का निर्माण करने की स्वतन्त्रता –
भारतीय नागरिक संघ अथवा संस्थाओं का गठन कर सकते हैं किन्तु ऐसी संस्थाएँ ‘नहीं बना सकते, जिनसे राज्य के कार्यों में व्यवधान उत्पन्न हो।
(iv) अबाध भ्रमण की स्वतन्त्रता-
भारत भूमि में बिना किसी रोक के भ्रमण की स्वतन्त्रता है।
(v) आवास की स्वतन्त्रता-
भारत में कहीं भी आवास बनाकर रहने की स्वतन्त्रता है।
(vi) व्यवसाय की स्वतन्त्रता –
प्रत्येक नागरिक को उसकी इच्छानुसार कार्य करने अथवा व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता प्राप्त है।
✳️ संविधान के अनुच्छेद 20 से 22 तक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में व्याख्या की गयी है।
✳️ अनुच्छेद 20 में यह व्यवस्था है कि अपराध के समय कानून के उल्लंघन के बिना किसी भी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
✳️अनुच्छेद 21 जीवन रक्षा से और अनुच्छेद 21 (क) में शिक्षा का मौलिक अधिकार है
जिसके द्वारा 6 से 14 वर्ष तक बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार दिया गया है तथा अनुच्छेद 22 निवारक निरोध से सम्बन्धित है।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 में इसका उल्लेख किया गया है। इसके अन्तर्गत निम्न व्यवस्था की गयी है-
(i) मनुष्यों के क्रय-विक्रय पर रोक –
अनुच्छेद 23 (1) के द्वारा यह कार्य दण्डनीय अपराध माना गया है।
(ii) बेगार श्रम का प्रतिषेध –
अनुच्छेद 23 (2) के अनुसार किसी भी व्यक्ति से बलपूर्वक काम लेना दण्डनीय माना गया।
(iii) कारखाने आदि में बच्चों को नौकर रखने पर रोक अनुच्छेद 24 के अनुसार लगायी गयी है।
धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक भारतीय नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है।
इसके अन्तर्गत निम्न प्रकार की धार्मिक स्वतन्त्रताएँ सम्मिलित हैं-
(i) किसी भी धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने व प्रचार करने की स्वतन्त्रता । (अनुच्छेद 25 )
(ii) धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। (अनुच्छेद 26)
(iii) किसी धर्म-विशेष की उन्नति के लिए कर अथवा सहयोग देने अथवा न देने की स्वतन्त्रता। (अनुच्छेद 27)
(iv) अनुच्छेद 28 के अनुसार राजकीय निधि से चलने वाली किसी भी सरकारी
अथवा सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं प्रदान की जा सकती।
संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार
अनुच्छेद 29 व 30 के द्वारा नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी निम्न अधिकार प्रदान किये गये हैं-
(i) अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण। (अनुच्छेद 29)
(ii) अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान खोलने का अधिकार। (अनुच्छेद 30)
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार तो प्रदान ही किये गये हैं, साथ ही उनके संरक्षण की भी पूर्ण व्यवस्था की गयी है।
संविधान के अनुच्छेद 32 में व्यवस्था है कि कोई भी नागरिक अपने मूल अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च व उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है।
डॉ० अम्बेडकर ने संविधान सभा में इस अधिकार के महत्त्व का उल्लेख इस प्रकार किया था,
“यदि मुझसे कोई यह पूछे कि संविधान का वह कौन-सा अनुच्छेद है, जिसके बिना संविधान शून्य हो जायगा,
तो मैं अनुच्छेद 32 की ओर ही संकेत करूँगा। यह अनुच्छेद संविधान का हृदय और आत्मा है।”
मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च और उच्चतम न्यायालय द्वारा पाँच प्रकार के लेख जारी किये जाते हैं-
(i) बन्दी प्रत्यक्षीकरण-
इसके अन्तर्गत न्यायालय बन्दी को अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश देता है
और इस बात की जाँच करता है कि व्यक्ति को कानून के विरुद्ध बन्दी बनाया गया है या कानून के अनुसार।
यदि किसी व्यक्ति को कानून के विरुद्ध बन्दी बनाया गया है तो न्यायालय उसे तत्काल रिहा करने का आदेश देता है।
(ii) परमादेश-
इस लेख का अर्थ है- हम आज्ञा देते हैं। इस लेख द्वारा न्यायालय किसी व्यक्ति अथवा संस्था को अपना कर्त्तव्य पालन करने की आज्ञा देता है।
(iii) प्रतिषेध –
इस लेख का आशय मना करने से है। इस प्रकार का आदेश-पत्र उच्च अथवा उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालय को किसी मुकदमे में कार्य रोकने
अथवा उसे उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकने के लिए जारी किया जाता है।
(iv) उत्प्रेषण–
इस लेख का अर्थ पूर्णतया सूचित करना है।
यह लेख भी उच्च अथवा उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने अधीन न्यायालय को किसी मुकदमे को समग्र सूचनाओं के साथ लेख जारीकर्ता न्यायालय में भेजने की आज्ञा देने के लिए है।
यह लेख उस समय जारी किया जाता है,
जब प्रकरण अधीनस्थ न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर हो तथा न्याय के दुरुपयोग होने की सम्भावना हो।
(v) अधिकार-पृच्छा-
जब कोई व्यक्ति अवैधानिक रूप से कोई पद प्राप्त कर लेता है तो न्यायालय उसके विरुद्ध यह लेख जारी कर उसे पद खाली कर देने का आदेश देता है;
उदाहरणार्थ- जैसे कोई व्यक्ति किसी ऐसे सार्वजनिक पद पर नियुक्त हो जाता है,
जिसकी आयु 60 वर्ष है, अब यदि उस पद के सम्बन्ध में सेवानिवृत्ति की निर्धारित आयु 60 वर्ष से कम है,
तो न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध अधिकार-पृच्छा लेख जारी कर सकता है और उस पद को रिक्त घोषित कर सकता है।
मूल अधिकारों की विशेषताएँ (Features of fundamental rights)
1.विस्तृत अधिकार –
विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारतीय नागरिकों को विस्तृत मूल अधिकार प्राप्त हैं। इनका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 18 में वर्णित है।
2.न्यायालय के प्रवर्तन की शक्ति-
यदि किसी भारतीय नागरिक के मूल अधिकारों की अवहेलना होती है तो वह अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए,
सर्वोच्च न्यायालय या सम्बन्धित उच्च न्यायालय में इस आशय की अपील कर सकता है तथा न्यायालय इस सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश दे सकता है।
3.अधिकारों का असीमित न होना –
संविधान के तृतीय भाग में वर्णित मूल अधिकार असीमित नहीं हैं बल्कि इन पर अनेक विधिक प्रतिबन्ध भी लगाए गए हैं।
4.मूल अधिकारों में संशोधन करने की संसद की शक्ति –
संसद को मूल अधिकारों में संशोधन या परिवर्तन करने का पूर्ण अधिकार है।
5.आपातकाल में मूल अधिकारों का स्थगन–
देश का राष्ट्रपति आपात स्थिति की घोषणा द्वारा मूल अधिकारों को स्थगित का सकता है।
राष्ट्रपति आपातकाल में संवैधानिक उपचारों के अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा सकता है।
लेकिन अनुच्छेद 20 एवं 21 के अन्तर्गत दिए गए जीवन और निजी स्वतन्त्रता के अधिकार को आपातकालीन घोषणा द्वारा स्थगित नहीं किया जा सकता है।
6.संविधान के तृतीय भाग में वर्णित अधिकार ही मौलिक हैं-
‘मौलिक अधिकारों’ की प्रतिष्ठा मात्र उन अधिकारों को प्राप्त जो संविधान के तृतीय भाग में वर्णित हैं।
संविधान के अन्य अनुच्छेदों में अंकित अधिकार जैसे- मताधिकार मौलिक अधिकार नहीं है।
7.मूल अधिकार सभी नागरिकों हेतु –
भारत के प्रत्येक नागरिक को मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं।
इन अधिकारों को प्रदान करने में नागरिकों के बीच जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, रंग, जन्म के आधार पर कोई विभेद नहीं किया गया है।
8.सशस्त्र सेनाओं के अधिकारों को सीमित किया जाना –
संविधान के अनुच्छेद 33 के अन्तर्गत भारतीय संसद को सशस्त्र सेनाओं के मूल अधिकारों को सीमित करने की शक्ति दी गयी है
जिससे सेनाएँ अपने कर्त्तव्यों को उचित रूप से निभा सकें।
अगस्त 1984 में किए गये एक संशोधन द्वारा गुप्त एजेन्सियों, जासूसी कार्य में लगे व्यक्तियों आदि को भी इस व्यवस्था के अधीन लाया गया है।
9.केन्द्र एवं राज्य सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध-
कोई भी सरकार किसी ऐसे कानून का निर्माण नहीं कर सकती जो मूल अधिकारों के विरुद्ध हो।
अनुच्छेद 13 में इस सम्बन्ध में स्पष्ट प्रावधान है कि “राज्य किसी ऐसे कानून का निर्माण नहीं करेगा,
जो संविधान के तृतीय भाग में दिए गए मूल अधिकारों को समाप्त करता है या घटाता है,
यदि कोई ऐसा कानून बनाया जाएगा तो वह कानून की उस सीमा तक रद्द समझा जाएगा जिस सीमा तक इस अनुच्छेद का उल्लंघन करता है।”
मौलिक अधिकारों का स्थगन
भारतीय संविधान में विशेष परिस्थितियों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत की गयी है।
निम्न परिस्थितियों में मौलिक अधिकार स्थगित किए जा सकते हैं-
(i) संसद संविधान में संशोधन करके मौलिक अधिकारों को स्थगित कर सकती है।
(ii) आपातकाल में भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार होता है कि वह मौलिक अधिकारों को स्थायी रूप से स्थगित कर दे।
ऐसा व्यक्तिगत हित की उपेक्षा करके राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर करता है।
इस सम्बन्ध में संविधानविद् एम० सी० छागला ने लिखा है, “हमारा संविधान एक हाथ से अधिकार देता है और प्रतिबन्धों के माध्यम से दूसरे हाथ से उन्हें सीमित कर देता है”
मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में श्री अल्लादि कृष्ण स्वामी ने कहा है,
“प्रतिबन्धों की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। यही व्यवस्था संविधान का जीवन होगी। इससे प्रजातन्त्र की हत्या नहीं वस् रक्षा होगी।”
मूल कर्त्तव्य
मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था नहीं की गयी थी,
किन्तु संविधान के 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1976 ई० के द्वारा संविधान में 10 मूल कर्त्तव्यों को समाहित कर लिया गया है।
86वें संविधान संशोधन द्वारा एक मूल कर्त्तव्य और जोड़ा गया है जिससे अब संविधान में 11 मूल कर्त्तव्य हो गये हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 (क) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(1).संविधान का पालन करे और उसके आदशों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे;
(2). स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करेः
(3). भारत की संप्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण बनाए रखे;
(4). देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
(5). भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे,
जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभावों से परे हो,ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं;
(6). हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे और उसका परिरक्षण करे;
(7). प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं,
रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखे;
(8). वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
(9). सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे।
(10). व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे,
जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले; और
(11). यदि माता-पिता या संरक्षक है, 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य को शिक्षा के अवसर प्रदान करे।
मूल कर्त्तव्यों का महत्त्व
संविधान में मूल कर्त्तव्यों के समावेश का उद्देश्य जागरूक एवं अच्छे नागरिक तैयार करना है।
मूल कर्त्तव्य हमारे संविधान के सर्वाधिक आदर्श, नैतिक एवं महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
इन कर्त्तव्यों के पालन से लोकतन्त्र मजबूत होगा।
मूल कर्त्तव्यों का महत्त्व इसलिए है कि इनका उद्देश्य देश में स्वावलम्बी, स्वाभिमानी, कर्तव्यपरायण, परोपकारी, चरित्रवान् एवं राष्ट्रभक्त नागरिकों का सृजन करना है।
संविधान में वर्णित मूल कर्त्तव्यों के महत्त्व को देश की पूर्व प्रधानमंत्री स्व० इंदिरा गाँधी के शब्दों में इस प्रकार प्रकट किया जा सकता है,
“अगर लोग मूल कर्त्तव्यों को अपने दिमाग (मस्तिष्क) में रख लें तो हम तुरन्त ही एक शांतिपूर्ण तथा मैत्रीपूर्ण क्रान्ति देखेंगे।
इसका महत्त्व निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) मौलिक कर्त्तव्यों का अनुपालन लोकतंत्र की सफलता की आधारशिला है।
(2) मौलिक कर्त्तव्य नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण एवं जनस्वास्थ्य के प्रति सचेष्ट बनाता है।
(3) मूल अधिकारों के साथ मूल कर्त्तव्यों का सामंजस्य आंवश्यक है क्योंकि ये एक-दूसरे के पूरक हैं।
(4) मूल कर्त्तव्य हमारे संविधान में सर्वाधिक नैतिक तथा महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
मूल कर्त्तव्य ही मूल अधिकारों की रक्षा करते हैं। इसलिए इनका होना अत्यावश्यक है।
(5) संविधान में मूल कर्त्तव्यों का समादेश करने का मूल आशय यह है कि
भारतीय नागरिकों को अपने कर्त्तव्यों का स्पष्ट रूप से बोध होगा और वे उचित रूप से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर सके।
(6) संविधान में मूल कर्त्तव्यों को भारत की एकता तथा अखण्डता बनाए रखने के लिए शामिल किया गया है।
यह तभी संभव है जब नागरिकों को अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान हो और उनके पालन करने की इच्छा उनमें दृढ़ हो।