Directive Principles of State Policy in Hindi

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Directive Principles of State Policy in Hindi – राज्य की नीति निदेशक तत्व

इस पोस्ट में Directive Principles of State Policy in Hindi  के बारे में इस पोस्ट में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है।

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दोस्तों पिछले पोस्ट में हम लोगों ने POLITY NOTES IN HINDI के अंतर्गत संविधान का निर्माण तथा विशेषताएं के बारे में जानकारी दी। 

Directive Principles of State Policy in Hindi - राज्य की नीति निदेशक तत्व
Directive Principles of State Policy in Hindi – राज्य की नीति निदेशक तत्व

 

इस पोस्ट में निम्न टॉपिक को Cover किया गया है-

  • राज्य के नीति निदेशक तत्वों का अर्थ 
  • भारतीय संविधान में उल्लेखित राज्य की नीति निदेशक तत्व
  • राज्य के नीति निदेशक तत्वों की आलोचना 
  • राज्य की नीति निर्देशक तत्वों का महत्व 

 

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का अर्थ

भारतीय संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व ऐसे आधारभूत सिद्धान्त हैं, जो राज्य को अपनी नीतियाँ निर्धारित करने के लिए दिशा-निर्देश देते हैं। 

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व नागरिकों को ऐसी सुविधाएँ प्रदान करते हैं, जो नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं। 

इसका उल्लेख संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 36 से 51 तक किया गया है। 

यद्यपि कि राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के पीछे न्यायालय के प्रवर्तन की शक्ति नहीं है, किन्तु नैतिक शक्ति अवश्य है।

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का उपबन्ध आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है।

डॉ० अम्बेडकर के अनुसार, “राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व 1935 ई० के अधिनियम में जारी किए गए अनुदेश पत्रों के समान ही हैं,

अन्तर यही है कि अधिनियम में गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों के निर्देश दिए गए थे, जबकि संविधान में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को निर्देश किए गए हैं।”

एम० वी० पायली के अनुसार, “निदेशक तत्त्व भारतीय प्रशासकों के आचरण के सिद्धान्त हैं।”

एन० आर० राघवाचारी के अनुसार- “राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों को संविधान में रखने का यह औचित्य है कि कोई भी दल राजनीतिक शक्ति प्राप्त करे, परन्तु उसे इन आदेशों का पालन करना पड़ेगा।

कोई इनकी अवहेलना नहीं कर सकेगा, क्योंकि चाहे उसे न्यायालय में कानून भंग करने के लिए उत्तरदायी न होना पड़े, परन्तु उसे निर्वाचन में मतदाताओं के समक्ष अवश्य उत्तर देना पड़ेगा।”

 

एल० जी० खेडेकर के अनुसार- “राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त वे आदर्श हैं, जिनकी पूर्ति का सरकार प्रयत्न करेगी।
” डॉ० एम० पी० शर्मा के अनुसार- “ये सिद्धान्त उन लक्ष्यों को निर्देशित करते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए विधायिका तथा कार्यपालिका को अपनी नीतियों का संचालन करना चाहिए।”

 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राज्य के राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व राज्य की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नीति को

निर्धारित करनेवाले सिद्धान्त हैं। इस सन्दर्भ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि

“इस भाग में दिये गये उपबन्धों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी,

किन्तु तो भी इसमें दिये हुए तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि निर्माण में इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।” 

 

भारतीय संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों को 4 वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

 

(i) आर्थिक व्यवस्था सम्बन्धी तत्त्व – 

संविधान के अनुच्छेद 39 में इन तत्त्वों के सम्बन्ध में राज्य से अपेक्षा की गयी है कि वह ऐसी नीतियाँ निर्मित करे, जिससे – 

  1. सभी नागरिकों (स्त्री-पुरुष) को जीविकोपार्जन के पर्याप्त साधन सुलभ हो सकें।
  2. पुरुषों तथा स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हों।
  3. आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार हो, जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सार्वजनिक कल्याण (बहुजनहिताय) के लिए उपयोग हो।
  4. मजदूर वर्ग के पुरुषों और महिलाओं तथा अवयस्क बच्चों आदि का दुरुपयोग न हो, 

अर्थात् उदरपूर्ति के लिए उन्हें विवश होका ऐसे व्यवसायों व कार्यों को न करना पड़े जो उनके लिए प्रतिकूल हों।

  1. सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त हो।
  1. वन्य जीवों एवं पर्यावरण की सुरक्षा हो सके।
  1. अपंग, रुग्ण और वृद्ध व्यक्ति जो अपनी जीविका कमाने में अक्षम हैं, राज्य की ओर से उन्हें आर्थिक सहायता मिल सके।
  1. कार्य करने के लिए उपयुक्त वातावरण का सृजन हो और महिलाओं को प्रसूति की सहायता प्राप्त हो सके।
  1. ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन प्राप्त हो सके।
  1. कृषि उपज बढ़े तथा पशुपालन को प्रोत्साहन एवं उनकी नस्ल में सुधार हो तथा गाय, भैंस, बछड़ों आदि का वध बन्द हो।

 

(ii) सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी तत्त्व 

सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी क्षेत्र में सरकार अथवा राज्य से अपेक्षा की गयी है कि वह इस प्रकार की नीतियों का निर्माण करे, जिससे –

1.संविधान लागू होने की दस वर्ष की अवधि के अन्दर चौदह वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त हो।

2.अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा तथा आर्थिक हितों की सावधानीपूर्वक उन्नति की व्यवस्था करे और ऐसी व्यवस्था करे कि

उन्हें सामाजिक न्याय की प्राप्ति हो और उनका किसी भी प्रकार से शोषण न हो।

3.लोगों के सामाजिक जीवन-स्तर को ऊँचा करने एवं लोगों के स्वास्थ्य सुधार के कर्तव्य को प्राथमिकता प्रदान करे। 

सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक पदार्थों का निषेध करने का प्रयत्न करे।

4.राष्ट्रीय महत्त्व के स्थानों, कलात्मक स्मारकों आदि के संरक्षण की व्यवस्था करे।

 

(iii) शासन तथा न्याय सम्बन्धी तत्त्व

शासन तथा न्याय के सम्बन्ध में राज्य ऐसी नीतियाँ बनाये, जिससे –

  1. स्थानीय स्वशासन की स्थापना हो सके। (अनुच्छेद 40)
  1. भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान व्यवहार संहिता बनाने का प्रयत्न करे।
  1. न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् रखे। (अनुच्छेद 50) 

 

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व

भारत सदा से शान्ति का पक्ष पोषक रहा है। इसी परम्परा के आधार संविधान के अनुच्छेद 51 में राज्य से निम्न अपेक्षा की गयी हैं-

  1. राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को प्रोत्साहन देगा।
  1. राष्ट्रों के बीच परस्पर न्यायपूर्ण और सम्मानजनक सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रयत्न करेगा।
  1. अन्तर्राष्ट्रीय नियमों तथा सन्धियों को उचित सम्मान एवं मान्यता प्रदान करेगा।
  1. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता के द्वारा समाप्त करने की भावना को प्रोत्साहन देगा।

 

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों की आलोचना

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के आलोचकों का कथन है कि ये तत्त्व केवल कोरे आदर्श हैं, 

ये केवल ऐसे उपदेश के समान हैं। जो विभिन्न परिस्थितियों में अर्थहीन हो जाते हैं।

प्रो० के० टी० थॉमस के अनुसार-“ये सिद्धान्त उस चेक के समान है, जिसका भुगतान केवल बैंक समर्थ होने की स्थिति में ही कर सकता है।”

प्रो० के० सी० ह्वीयर के अनुसार- “ये तत्त्व उद्देश्यों और आकांक्षाओं की घोषणा मात्र है।”

 

नीति-निदेशक तत्त्वों की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है-

1.संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न होने का भय- 

राज्य द्वारा नीति-निदेशक तत्त्वों के अनुरूप अपनी नीतियों का निर्माण करने पर मूल अधिकारों के अतिक्रमण की आशंका बढ़ जाएगी।

2.साधनों की व्यवस्था नहीं 

नीति-निदेशक तत्त्वों को व्यावसायिक रूप देने के लिए संविधान के अन्तर्गत आवश्यक साधनों की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है।

 

3.वैधानिक शक्ति का अभाव 

 संविधान में दिए गए नीति-निदेशक सिद्धान्तों का कोई वैधानिक महत्त्व नहीं है,

क्योंकि किसी न्यायालय द्वारा किसी सरकार को इन्हें अपनाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।

 

4.रूढ़िवादी सिद्धान्त 

गत वर्षों में मानव-विचारधारा में हुए क्रान्तिकारी परिवर्तनों के चलते नीति-निदेशक तत्त्वों के कई सिद्धान्त रूढ़िवादी हो गए हैं। 

ऐसे में आने वाली पीढी को इन तत्त्वों के साथ बाँधना उचित नहीं होगा।

डॉ० ह्वीयर के अनुसार, “राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व उद्देश्यों तथा कामनाओं की घोषणा से अधिक नहीं है। 

संविधान नैतिक आदर्शों को रखने योग्य स्थान नहीं हैं बल्कि इसमें मात्र उन्हीं तथ्यों को शामिल होना चाहिए जिनका कोई वैधानिक महत्त्व हो।

 

5.अनिश्चित एवं अस्पष्ट 

इन तत्त्वों को देश की महत्त्वपूर्ण समस्याओं को साधारण समस्याओं के साथ जोड़ दिया गया है। साथ ही इन तत्त्वों के कई विषय अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं।

 

6.व्यावहारिकता का अभाव 

कुछ सिद्धान्तों को कार्यान्वित करना यदि असंभव नहीं है तो कठिन अवश्य नहीं है।

उदाहरण के लिए जिन राज्यों में मद्य निषेध लागू किया गया वहाँ राजस्व घटा और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई।

 

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का महत्त्व

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने संविधान-सभा में कहा था- 

“मेरे विचार से राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों का बहुत महत्त्व है, क्योंकि वे इस तथ्य को प्रतिष्ठित करते हैं कि हमारा लक्ष्य आर्थिक प्रजातन्त्र है। 

हम यह नहीं चाहते कि संविधान में उल्लिखित विभिन्न व्यवस्थाओं के मध्य से केवल संसदीय प्रणाली की स्थापना हो जाय और हमारे आर्थिक आदर्श और सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में कोई निर्देश न रहे। इसलिए हमने जान- बूझकर निदेशक तत्त्वों को अपने संविधान में स्थान दिया है।”

 

इनके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा है, “राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का उद्देश्य जनकल्याण को बढ़ावा देने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।”

ए० के० अय्यर ने संविधान सभा में कहा था, “कोई भी लोकप्रिय मंत्रिमण्डल इन तत्त्वों के उल्लंघन का साहस नहीं कर सकता।”

वास्तव में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के पीछे जनमत की शक्ति है। 

इसलिए इनकी अनदेखी करना किसी भी सरकार के सामर्थ्य की बात नहीं होगी। 

राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का महत्त्व निम्न है-

1.लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना 

नीति-निदेशक तत्त्व लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायता करते हैं तथा आदर्श राज्य की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। 

इन तत्त्वों ने जनता तथा सरकार के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत किया है।

 

2.जनमत की शक्ति के प्रतीक 

जनमत की शक्ति व्यवहार में इन सिद्धान्तों के पीछे होती हैं। प्रजातंत्रीय शासन के अन्तर्गत सरकार के लिए जनमत की उपेक्षा करना सरल नहीं होता। 

इन तत्त्वों को न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं किया जा सकता लेकिन इनके पीछे जनमत की पूर्ण शक्ति होती है। 

यदि सरकार निदेशक तत्त्वों का उल्लंघन करती है तो उसे व्यवस्थापिका में भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा तथा चुनाव के समय निर्वाचकों को जवाब देना पड़ेगा।

 

3.शासन के पथ-प्रदर्शक

भारतीय संविधान द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था में समय-समय पर विभिन्न राजनीतिक दलों को शासन करने की शक्ति प्राप्त होती है। 

शासन करने वाले राजनीतिक दल की चाहे जो भी नीति हो, उसे इन निदेशक तत्त्वों का सम्मान करना ही होगा।

 

4.मूल अधिकारों के सम्पूरक 

मूल अधिकारों का वास्तविक लाभ तभी हो सकता है जब देश का सामाजिक तथा आर्थिकः –

वातावरण न्याय के अनुकूल हो। निदेशक तत्त्व ऐसे वातावरण की स्थापना के प्रेरक हैं। 

 

5.नैतिक आदर्श 

विश्व में प्रत्येक राज्य के समक्ष महान् आदर्श होने चाहिए जिसकी पूर्ति के लिए सरकारें प्रयत्नशील रहें।

ग्लैडहिल के अनुसार, “इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि नैतिक उपदेशों से राष्ट्रों के इतिहास ही बदल गए हैं।” 

ये सिद्धान्त संघ और राज्यों की सरकारों के लिए नैतिक आदर्श के साथ-साथ मार्गदर्शक भी हैं। 

 

6. आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना 

नीति-निदेशक तत्त्वों में हमारे आर्थिक और सामाजिक प्रजातंत्र का रहस्य छिपा है। 

इस तत्त्वों का पालन करने से वास्तविक रूप से आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना हो सकेगी।

 

7.सरकार की उपलब्धियों की जाँच की कसौटी

 नीति-निदेशक तत्त्वों के आधार पर जनता केन्द्र तथा राज्य सरकारों की उपलब्धियों की जाँच कर सकती है; 

अर्थात् जनता किसी सरकार के कार्यों की जाँच इस बात पर करेगी कि उसके द्वारा इन तत्त्वों को कहाँ तक लागू किया गया है।

ये तत्त्व सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति लाने के सबसे सशक्त साधन हैं

जो आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना और विश्व शांति बनाए रखने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। 

भारत के भूतपूर्व महान्यायवादी एम० सी० सीतलवाड़ के शब्दों में, 

“ये तत्त्व न्यायालयों के लिए उपयोगी प्रकाश स्तम्भ हैं।” 

एम० सी० छागला के अनुसार, “इनका पालन करके भारत की भूमि पर स्वर्ग बनाया जा सकता है और एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है 

जिसके नागरिकों में आर्थिक समानता होगी और प्रत्येक नागरिक को कार्य करने,

शिक्षा प्राप्त करने तथा अपने परिश्रम का फल प्राप्त करने का अधिकार होगा।”

 

 

 

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