Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester – समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न 

Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester – समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न 

नमस्कार दोस्तो स्वागत है आप सभी का examwalah.com की इस नये पोस्ट में। इस पोस्ट में Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester कि पारे में चर्चा करेंगे। 

यदि आप लोग Sociology विषय को Major या Minor में लिए हैं तो आज का यह पोस्ट आपके लिए महत्वपूर्ण होने वाला है क्योंकि इस पोस्ट में, Sociology Important Short Answer type Questions दिये गये है जो आपके exam के लिए महत्वपूर्ण भी हो सकते हैं। 

Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester - समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न 
Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester – समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न

 

 

दोस्तों इससे पहले के पोस्ट में Sociology Important Very Short Answer type Questions के बारे में देख लिए हैं। और आज हम फिर BA/Bsc/B.Com 2nd Semester Sociology Most Important Questions के बारे जानेंगे जो निम्न दिये गये है-

खण्ड-ब 

(Section-B)

लघु उत्तरीय प्रश्न 

 (Short Answer Type Questions)

प्रश्न-1. कस्वा की विशेषताएँ बताइए।
अथवा 
कस्बे की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?

उत्तर- कस्बे की विशेषताएँकस्बे की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 

  • कस्बे की आबादी नगरों से कम तथा गाँव से अधिक होती है। 
  • प्रत्येक कस्बे में चिकित्सालय, डाकघर व बाना होता है। 
  • प्रत्येक कस्बे में साप्ताहिक या सप्ताह में दो बार बाजार लगता है। 
  • कस्बे में उद्योग व व्यापार की प्रधानता होती है। 
  • कस्बे में मकानों का केन्द्रीकरण होता है।

 

प्रश्न-2. ग्रामीण नगरीय सम्पर्क की व्याख्या कीजिए।
अथवा
ग्रामीण-नगरीय सातत्य क्या है?
अथवा
ग्रामीण-नगरीय सातत्य की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

उत्तर- ग्रामीण-नगरीय अनुबन्ध-ग्रामीण नगरीय अनुबन्ध व दोनों के बीच पाई जाने वाली अन्तःक्रिया को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-

  • गाँव और नगर के मध्य कई अन्तरों के बावजूद भी ये दोनों एकदम एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं। इन दोनों में परस्पर आदान-प्रदान एवं अन्तःक्रिया होती रहती है जिसके फलस्वरूप दोनों का ही जीवन परिवर्तित होता रहता है। ग्राम एवं नगर के पारस्परिक प्रभाव ने ग्रामीणीकरण, नगरीकरण आदि प्रक्रियाओं को जन्म दिया है। इन प्रक्रियाओं के फलस्वरूप ग्राम और नगर की विशेषताओं का मिला-जुला रूप प्रकट हुआ है। औद्योगिकीकरण तथा आर्थिक-सामाजिक विकास ने ग्रामों की आत्म- निर्भरता को समाप्त किया।
  • नगरीकृत जर्जीवन पूर्ण नगरीय नहीं होकर नगर जीवन से प्रभावित ग्रामीण जीवन है। नगरीकृत जीवन गाँवों में भी देखा जा सकता है। नगरों की समृद्धि और अधिकाधिक नगरीकरण होने पर ही ग्राम्य नगरीकरण की प्रक्रिया निर्भर है। यदि नगर विकसित नहीं होते हैं और नगरीकरण तेजी से नहीं बढ़ता है तो ऐसे क्षेत्रों के निर्माण की आवश्यकता ही खत्म हो जाती है।
  • ग्राम्य-नगरीकरण के कारण नगरीय संस्कृति का विस्तार होता है। महानगरीय सभ्यता और संस्कृति अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं और महानगरीय गाँव महानगरीय संस्कृति के अंश बन जाते हैं। 

 

प्रश्न-3. नगरीय समुदाय की विशेषताएँ लिखिए।
अथवा 
नगर की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?

उत्तर-नगर की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

  • मुद्रा अर्थव्यवस्था

    – आधुनिक नगरों में मुद्रा अर्थव्यवस्था पायी जाती है। इसके फलस्वरूप व्यापार का कार्य सुविधा से होता है। विनिमय के लिये सामान को लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाना पड़ता। इसके कारण धन का संचय भी होने लगा जो व्यक्ति की शक्ति का परिचायक बन गया।

  • लिखित आलेख

    – नगरों में मुद्रा के प्रचलन एवं व्यापार के प्रसार के साथ-साथ लेखन कार्य व कागज का प्रचलन बढ़ा। अब मनुष्य अपने हस्ताक्षर और मोहर से जाना जाने लगा, कागज पर समझौते होने लगे और आलेख (Documents) अस्तित्व में आये। पुलिस एवं न्यायालय लिखित आलेखों को अधिक विश्वसनीय मानते हैं। अतः नगरों में अधिकांश कार्य लिखित रूप में ही होता है।

  • आविष्कार एवं तकनीकी- 

    नगरों में विकसित तकनीकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण पाया जाता है, फलस्वरूप वहाँ नित्य नये आविष्कार जन्म लेते हैं। अनेक प्रकार की समस्याओं का नगर के लोगों को सामना करना पड़ता है जिन्हें हल करने के लिये वे नये-नये आविष्कार एवं प्रविधियों की खोज करते रहते हैं।

  • सुदृव प्रशासन

    –  नगरीय जीवन की जटिलता एवं समस्याओं के समाधान के लिये वहाँ सुइद्ध प्रशासन की आवश्यकता महसूस होती है। सुरक्षा, न्याय पुलिस पानी, बिजली, शिक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य, यातायात, संचार, सफाई एवं सार्वजनिक कल्याण की देख-रेख आदि के लिये सुदृढ़ प्रशासन का होना आवश्यक है।

 

प्रश्न-4. नगरों की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
अथवा
नगर को परिभाषित कीजिए।
अथवा
नगरीकरण की अवधारणा की विवेचना कीजिए।

उत्तर-नगरों की अवधारणा मानव एक समाज त्रिय प्राणी है, यह अकेले नहीं रह सकना। जहाँ पर लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य व्यवसाय भी करते है. नगर कहलाता है।

नगरीय लोगों में सामुदायिक भावना का अभाव पाया जाता है।

अतः अनेक समाजशास्त्रियों ने कहा है कि व्यवसाय, पर्यावरण, जनसंख्या की गतिशीलता, अन्तः क्रिया, विभेदीकरण, विजातीयता और विषमता नगर में अत्यधिक दिखाई पड़ती है।

नगरों की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कुछ प्रमुख विद्वानों ने लिखा है कि 

“नगर एक ऐसी संस्था है जहाँ के अधिकतर निवासी कृषि कार्य के अतिरिक्त अन्य उद्योगों में व्यस्त हैं।” -वर्गेल

“नगर स्पष्ट अर्थों में एक भौगोलिक संरचना है. एक आर्थिक संगठन और एक संस्थापक प्रक्रिया, सामाजिक प्रक्रियाओं का मंच तया सामूहिक एकता का एक सौंदर्यात्मक प्रतीक है।”       -मम्फोर्ड

 

प्रश्न-5. भारतीय समाज व संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर-ये दो विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

  • अध्यात्मवाद-भारतीय संस्कृति में अध्यात्मवाद को महत्त्व दिया गया है। भौतिक सुख और भोग-लिप्सा कभी भी जीवन का ध्येय नहीं माना गया। आत्मा और ईश्वर के महत्त्व को स्वीकार किया गया और शारीरिक सुख के स्थान पर मानसिक एवं आध्यात्मिक आनन्द को सर्वोपरि माना है। धर्म और आध्यात्मिकता भारतीय समाज व संस्कृति की आत्मा है। इसमें भोग और त्याग का सुन्दर समन्दय पाया जाता है। अध्यात्मवाद नेही सहिष्णु प्रवृत्ति को जन्म दिया है।
  • धर्म की प्रधानता–  भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है। धर्म के द्वारा मानव जीवन के प्रत्येक व्यवहार को नियन्त्रित करने का प्रयास किया गया है। भारतीय समाज एवं संस्कृति के विभिन्न अंगों पर धर्म की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। प्रत्येक भारतीय अपने जन्म से मृत्यु तक, सूर्योदय से सूर्यास्त तक दैनिक एवं वार्षिक जीवन में अनेक धार्मिक कार्यों की पूर्ति करता है। भारतीयों का धर्म संकुचित धर्म नहीं है, वरन् मानवतावादी धर्म है। यह सभी जीवों के कल्याण, क्षमा और दया में विश्वास करता है। भारतीय धर्म प्रत्येक जीवन में ईश्वर का अंश मानता है। इसीलिए वह जीवन की भलाई में विश्वास करता है।

 

प्रश्न-6. भारतीय संस्कृति में पायी जाने वाली धार्मिक विविधता में एकता की विवेचना कीजिए।

उत्तर-भारत विभिन्न प्रकार के धर्मों की जन्मभूमि रहा है। हिन्दू जैन, सिख व बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई और ईसाई तया इस्लाम धर्म बाहर से आया।

हर धर्म में कई मत-मनान्तर और सम्पदाय पाये जाते हैं तथा उनके नियमों व मान्यताओं में अनेक विविधताएँ पायी जाती है। इन दिभिक्षताओं के होने पर भी धर्मावलम्बी अनेक कालों से भारत में रहते आ रहे हैं।

आमतौर पर इम धर्मों में हमें विभिन्नता नजर आती है, किन्तु सबक मूल सिद्धान्तों में समानता है। सभी धर्म आध्यात्मवाद नैतिकता, दया ईमानदारी, पाप-पुण्य स्वर्ग-नरक सत्य, अहिंसा आदि में विश्वास करते हैं।

देश के विभित्र स्थानों में स्थित तीर्थ स्थानों में हर धर्म के अनुयायियों में सद्भावना व एकता की भावना को उजागर किया और धार्मिक सहिष्णुता की भावना ने भी एकता में योगदान दिया।

पौराणिक काल से ही भारत में धर्म व संस्कृति के क्षेत्रों में आत्मसात् तथा पर-संस्कृति अपनाने की प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तन होता रहा है।

आर्य व इनिङ संस्कृतियों का या पूर्वकाल में उदय हुआ। उसके बाद ईसाई व इस्लाम संस्कृतियों का। मुगल शासकों के काल में हिन्दू व इस्लाम धर्म का ममन्वय हुआ।

नानक एवं कबीर की शिक्षाओं में भी ऐसा ही समन्वय है। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम बौद्ध, जैन एवं सिख धमों के लोगों के देश के हर कोने में साथ-साथ रहने में भारत में एक मिश्रित संस्कृनि का विकास हुआ।

 

प्रश्न-7. भारतीय विद्या अभिगम का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-इम्तियाज अहमद ने 1966 में भारतीय समाजशास्त्र से सम्बन्धित चार प्रवृत्तियों का विश्लेषण किया है यथा 

  • दर्शनशास्त्रीय, 
  • भारतीय विद्याशास्त्रीय 
  • सामाजिक मानवशास्त्रीय, 
  • पाश्चात्य आनुभाविक। 

सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय विद्याशास्वीय प्रवृत्ति या भारतीय विद्या अभिगम की विशेषता प्राचीन भारतीय अन्धों का अध्ययन है।

इसके अन्तर्गत प्राचीन इतिहास, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं दर्शन आदि का बोध होता है।

शास्त्रों के अध्ययन हेतु अति सन्निकट जाने के लिए ही ‘अध्ययन अभिगम’ शब्द को भारतीय विद्याओं को प्राप्त करने हेतु ‘भारतीय विद्या अभिगम’ शब्द को प्रयुक्त किया गया है।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि भारतीय विद्या अभिगम के अन्तर्गत भारतीय शिलालेखों, ऐतिहासिक अभिलेखों के तथ्यों, पारम्परिक एवं प्राचीन ग्रन्थों के विश्लेषण के आधार पर भारतीय समाज की व्याख्या की जाती है। 

ड्यूमा एवं पोकोक ने लिखा है कि, “हमारी सम्मति में भारत के समाजशास्त्र के स्वस्व विकास के लिए पहली शर्त उसके नया प्राचीन भारतीय विद्या के मध्य उचित सम्बन्ध की स्वापना है।

सिद्धान्त के रूप में यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भारत का समाजशास्त्र, समाजशास्त्र तवा भारतीय विद्या के संगम पर स्थित है।”

 

प्रश्न-8. “भारत विद्या अभिगम में भारत के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान सम्भव है।” विवेचना कीजिए।

उत्तर-भारतीय विद्या अभिगम भारत के प्राचीन धार्मिक, पारम्परिक ग्रंथों का विश्लेषण करता है और इसके अन्तर्गत वह भारत के सांस्कृतिक इतिहास, विशेषकर वर्शन, तत्वज्ञान आदि का विश्लेषण करता है।

इस विश्लेषण के द्वारा ही यह भारत की जाति वैसी सामाजिक संस्थाओं की गहन व विस्तृत व्याख्या कर पाना है। 

अनेक विद्वानों का विचार है कि जाति जैसी संस्था को भारतीय दर्शन एवं ब्रह्म की अवधारणा के अवबोधन के द्वारा ही समुचित परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जति जैसी सामाजिक संस्थाओं का निर्माण करने में भारत का दार्शनिक चिन्तन महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है तथा भारत के दार्शनिक चिन्तन को समझने के लिए भारत के धार्मिक, आर्थिक तथा जैन साहित्य को समझना आवश्यक है। 

अतः स्पष्ट है कि भारत की जाति जैसी संस्थाओं के सांगोपांग विश्लेषण के लिए, उनके समाजशास्त्रीय बोध पक्षों का उल्लेख करने के लिए भारतीय शास्त्रीय अथ वेद, उपनिषद् स्मृतिग्रंथ, गृह्यसूत्र, रामायण, महाभारत, कौटिल्य का अर्वशास्य

तथा जैन साहित्य का अध्ययन व विश्लेषण अत्यन्त उपयोगी है और ‘भारत-विद्या उपागम’ इस दृष्टि से भारतीय समाज को समझने में अपनी प्रासंगिकता लिए हुए है।

 

प्रश्न-9.भारतीय विद्या अभिगम की सीमाएँ बताइए।

उत्तर-सीमाएँ– भारतीय विद्या के आधार पर तथा भारत के पारम्परिक तथा प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर भारत में अनेक भारतीय समाजशास्त्रियों ने भारतीय समाज का अध्ययन करने का प्रयत्न किया है, लेकिन इसको अध्ययन का आधार बनाते समय इसकी निम्न सीमाओं पर भी ध्यान रखा जाना आवश्यक है- 

  • इन ग्रन्थों के समस्त अध्ययनों का आधार कल्पना व धर्म है फलस्वरूप इनमें वैज्ञानिक तथ्यों का पूर्ण अभाव है। 
  • वैदिक काल से लेकर स्मृतिकाल तक के समस्त अन्धों का आधार धार्मिक है, न कि सामाजिक। सामाजिक आधार के अभाव में इन ग्रन्थों को समाजशास्त्रीय अध्ययनों के आधार के रूप में नहीं लिया जा सकता। 
  • प्राचीन भारत में उपलब्ध समस्त सामाजिक व्यवस्थाओं में किसी न किसी वर्ग विशेष का प्रभुत्व रहा है। उदाहरण के लिए, वर्ण-व्यवस्था में ‘ब्राह्मणों का प्रभुत्व’ है। अतः इन ग्रन्थों में प्रभुत्व वर्ग के प्रति झुकाव का पाया जाना स्वाभाविक है। इस प्रकार के पक्षपातीय ग्रन्थों के आधार पर समाजशास्त्रीय निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। 
  • इन ग्रन्थों में परस्पर एकरूपता भी नहीं पायी जाती है। विभिन्न ग्रन्थ परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, जाति की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में विरोध है। अतः ऐसे परस्पर विरोधी अध्ययनों को समाजशास्त्रीय आधार के रूप में नहीं लिया जा सकता।

 

प्रश्न-10. भारत क्या है?

उत्तर- (1) ‘भरत नामक प्रतापी राजा के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा’– 

‘भारतवर्ष क्या है’ से हमारा तात्पर्य विशेष रूप से यह है कि इस देश का नाम भारतवर्ष क्यों पड़ा जो हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक विस्तृत महाद्वीप ‘भारतवर्ष’ अर्थात् ‘भारत का देश’ के नाम से विख्यात है।

‘पौराणिक गाथाओं’ के नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। 

हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार सम्पूर्ण पृथ्वी सात ‘समकेन्द्रिक समद्वीपों’ में विभक्त है। इनमें से बीच का महाद्वीप ‘जम्बूद्वीप’ है और भारतवर्ष उसी का ही अंग है।

किन्तु प्रारम्भिक बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि जम्बूद्वीप तो ईसवी पूर्व तृतीय शताब्दी से दैनिक प्रयोग में आने वाला एक प्रादेशिक नाम था।

इसका प्रयोग चीन को छोड़कर एशिया के उस समस्त भू-भाग के द्वारा होता था, जिसको महान साम्राज्यवादी मौर्य राजवंश ने अपनी शक्ति द्वारा प्रभावित किया था।

(2) ‘सिन्धु’ या ‘इण्डस’ के नाम पर इस देश का नाम हिन्दुस्तान पड़ा-

भारतवर्ष का दूसरा नाम इस देश के आक्रमणकारियों, फारस निवासियों एवं यूनानियों द्वारा रखा गया था। उन्होंने ‘सिन्धु या इण्डस’ नदी के नाम के आधार पर इस देश का नाम ‘इण्डिया’ या ‘हिन्दुस्तान’ अर्थात् ‘सिन्धु का प्रदेश’ रखा।

फारस के निवासी ‘स’ अक्षर का उच्चारण ‘ह’ की भाँति करते थे इसलिये उन्होंने सिन्यु का उच्चारण ‘हिन्दू’ जैसा किया। इसी से ही इस देश का नाम ‘हिन्दुस्तान’ पड़ा। आज यह नाम इसलिए और सत्य प्रतीत होता है कि यहाँ के निवासी विशेष रूप से ‘हिन्दू’ ही हैं।

Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester – समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-11. भारतीय सामाजिक संगठन में होने वाले कोई दो परिवर्तन लिखिए।

उत्तर- जाति व्यवस्था में परिवर्तन– जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक आधारभूत संस्था कही जा सकती है। व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन जति नियन्त्रित करती थी।

किन्तु नगरीकरण, औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण और पश्चिमीकरण ने आज इस व्यवस्था में परिवर्तन ला दिया है। 

आज जाति एवं व्यवसाय का कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। प्रेम विवाह बढ़ रहे हैं। ‘अन्तर्जातीय विवाह’ होने लगे हैं। खान-पान के सम्बन्ध अब ढीले पड़ रहे हैं। जातीय दूरी धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

जाति सम्बन्धी सभी निषेध भी प्रायः समाप्त से हो गये हैं। आज व्यक्ति के लिये अपनी जाति के नियमों के पालन पर कठोर प्रतिबन्ध नहीं है।

विवाह की संस्था में परिवर्तन–  भारतीय सामाजिक संगठन में आज विवाह प्रणाली में भी परिवर्तन दिखाई देता है। अनेक कारणों से विवाह आज जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध नहीं रह गया है। पति अथवा पत्नी दोनों में से कोई भी तलाक दे सकता है। 

पति को अब परमेश्वर के रूप में नहीं बल्कि जीवन साथी के रूप में देखा जाता है। न ही स्त्री को आज अर्धांगिनी माना जाता है। विवाह एवं जाति का सम्बन्ध भी कम हुआ है। आज हमारे समाज में प्रेम विवाह अधिक हो रहे हैं। 

विवाह की धार्मिक महत्ता भी घटने लगी है। इसीलिए आज विवाह एक ‘धार्मिक संस्कार’ तवा अटूट सम्बन्ध नहीं रहा है। कोर्ट विवाह भी आज हमारे समाज में प्रचलित हैं।

 

प्रश्न-12. संरचनात्मक प्रकार्यात्मक अभिगम के आधारभूत मंतव्य बताइए।

उत्तर-संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक अभिगम के आधारभूत मंतव्य निम्नांकित हैं- 

  • प्रकार्यवादी समाज को एक व्यवस्था मानते हैं। 
  • व्यवस्था के विभिन्न भाग परस्पर अन्तः सम्बन्धित तथा अन्तः निर्भर हैं।
  • व्यवस्था के सभी अंग समन्वयता, सन्तुलन व समायोजन में सहायता प्राप्त करते हैं। 
  • संरचना प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित है।
  • संरचना या व्यवस्था के प्रकार्य समाज के लिए उपयोगी माने जाते हैं।

 

प्रश्न-13. दुर्खीम के अनुसार धर्म के क्या कार्य हैं?

उत्तर-दुर्खीम के अनुसार धर्म के चार प्रमुख कार्य हैं- 

  • धार्मिक कृत्य आत्म-अनुशासन को प्रोत्साहन देकर व्यक्तियों को सामाजिक जीवन के लिये तैयार करते हैं, 
  • धार्मिक कृत्य व्यक्तियों को एक-दूसरे के समीप लाते हैं, उनके सम्बन्धों को मजबूत करते हैं तथा इस प्रकार सामाजिक संश्लिष्टता को बढ़ावा देते हैं, 
  • धार्मिक विश्वास समूह की सामाजिक विरासत को बनाये रखने तथा आने वाली पीढ़ियों को मूल्य हस्तान्तरित करने में सहायता देते हैं, 
  •  धर्म उदासीनता की अवस्था, विश्वास खो देने की अवस्था तथा मुसीबत के समय नैतिक शक्ति प्रदान करता है जिससे कि जीवन में आये संघर्ष का सामना किया जा सके।

 

प्रश्न-14. संरचनात्मक प्रकार्यात्मक अभिगम का भारतीय समाजशास्त्र में योगदान बताइए।

उत्तर-संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक अभिगम ने भारत में समाजशास्त्र की समृद्धि के लिए अनेक प्रकार से योगदान दिया है। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है- 

(i) सांस्कृतिक तथ्यों तथा नृजातीय अभिलेखों का संग्रह-  

इस अभिगम के प्रयोग के अनन्तर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में से सांस्कृतिक तथ्यों तथा नृजातीय अभिलेखों का संग्रह किया गया, जिससे उनकी तुलना तया विश्लेषण किया जा सके।

(ii) पर्यवेक्षण की वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित पद्धति का प्रारम्भ- 

इस अभिगम के प्रयोग के अन्तर ही ऐतिहासिक अनुमानों के एक प्रतिकारक के रूप में पर्यवेक्षण की वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित पद्धति का समारम्भ हो सका है।

(iii) समाजशास्त्र की प्रतिष्ठा को बढ़ाना– 

संरचनात्मक प्रकार्यात्मक अभिगम के आधार पर हुए भारतीय समाज के अनेक क्षेत्रों के अध्ययनों ने तात्कालिक, व्यावहारिक तथा नीति विषयक समस्याओं में समाजशास्त्र की रुचि प्रदर्शित कर जनता तथा प्रशासकों की आँखों में समाजशास्त्र की प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि की है।

 

प्रश्न-15. भारतीय समाज में पायी जाने वाली सांस्कृतिक प्रतिमान सम्बन्धी विविधताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

उत्तर-भारत एक ऐसा देश है जिसमें विविधता के अनेक आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ अनेक संस्कृतियों का सह-अस्तित्व पाया जाता है।

भारत में समय-समय पर अनेक बाह्य आक्रमणकारी लोग आते रहे और उन्होंने यहाँ शासन किया। यहाँ से धन-सम्पत्ति लूट कर ले जाने के बजाय अधिकांश लोग यहीं बस गये। 

इस प्रकार भारत अनेक संस्कृतियों का संगम स्थल एवं द्रावण-पात्र बन गया। सांस्कृतिक बहुलता भारत की नियति बन गई। यही कारण है कि भारत में विभित्र धमों, भाषाओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, खान-पान वेश-भूषा, विचारों, विश्वासों, संस्कारों आदि के रूप में बहुलता पायी जाती है। 

विभिन्न संस्कृतियों का भारत में सह-अस्तित्व ही संस्कृितिक बहुलनावाद के नाम से जाना जाता है। यहाँ सांस्कृतिक बहुलतावाद को अनेक रूपों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये, एक एक ओर बहुत धनी, उच्च जाति और उच्च वर्ग के लोग हैं, तो दूसरी ओर अत्यधिक निर्धन, निम्न जाति के लोग हैं। 

विभिन्न जातियों, धर्मों, क्षेत्रों और भाषाओं से सम्बद्ध समूह सारे देश में फैले हुए हैं। धर्म, भाषा, क्षेत्र, प्रथा और परम्परा के आधार पर यहाँ अल्पसंख्यक समूह बने हुए हैं।

 

प्रश्न-16.  नृजातीय समूह से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-नृजातिकी या संजातीयता को रंग तथा संस्कृति के आधार पर विश्लेषित किया जा सकता है।

नृजातिकी समूह किसी समाज की जनसंख्या का वह भाग होता है जो परिवार की पद्धति, भाषा, मनोरंजन, प्रथा, धर्म, संस्कृति एवं उत्पत्ति आदि के आधार पर अपने को दूसरों से पृथक् समझता है। 

दूसरे शब्दों में, एक प्रकार की भाषा, प्रथा, धर्म, परिवार, रंग एवं संस्कृति से सम्बन्धित लोगों के एक समूह की नृजातिकी की संज्ञा प्रदान की जा सकती है।

समान इतिहास, प्रजाति, जनजाति, वेश-भूषा, खान-पान वाला सामाजिक समूह भी एक नृजातीय समूह होता है जिसकी अनुभूति उस समूह एवं अन्य समूहों के सदस्यों को होनी चाहिए। 

समान आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हितों की रक्षा तथा अभिव्यक्ति करने वाले समूह को भी संजातीय समूह कहा जा सकता है। एक नृजातिकी समूह की अपनी एक संस्कृति होती है, अतः नृजातिकी एक सांस्कृतिक समूह भी है। भारत एक बहु- नृजातिकी समूह वाला देश भी है।

 

प्रश्न-17. भारतीय समाज में पायी जाने वाली नृजातीय विविधताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
संजाति समूह की अवधारणा समझाइए।
अथवा
नृजातीय विविधताएँ।

उत्तर-एक नजातिकी के लोगों में परस्पर प्रेम, सहयोग एवं संगठन पाया जाता है, उनमें अहं की भावना पायी जाती है। एक नृजातिकी के लोग दूसरी नृजातिकी के लोगों से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु अपनी भाषा, वेशभूषा रीति-रिवाज एवं उपासना पद्धति की विशेषताओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। 

समाजशास्त्रीय भाषा में इसे नृजातिकी केन्द्रित प्रवृत्ति कहते हैं। नृजातिकी के आधार पर एक समूह दूसरे दूसरे समूह से अपनी दूरी बनाये रखता है।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली नृजातिकी समूह कमजोर नृजातिकी समूह का शोषण करते हैं, उनके साथ भेद-भाव रखते हैं।

इससे समाज में असमानता, संघर्ष एवं तनाव पैदा होता है। भाषा, धर्म और सांस्कृतिक विभेद, संजातीय समस्या के मुख्य कारण हैं। भारत में भाषा, धर्म, सम्प्रदाय एवं प्रान्तीयता की भावना के कारण अनेक तनाव एवं संघर्ष हुए हैं।

 

प्रश्न-18. वैदिक धर्म के रूप में हिन्दू धर्म का सूत्रपात किस प्रकार हुआ?

उत्तर-हिन्दू धर्म का सूत्रपात वैदिक धर्म से हुआ जो हिन्दू धर्म का आदि रूप है और जो आयों के धर्म के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस धर्म के अन्तर्गत अनेक दैवी शक्तियों एवं प्राकृतिक शक्तियों की देवताओं के रूप में पूजा की जाती थी। इन देवताओं को तीन भागों में विभाजित कियां जा सकता है- 

  • आकाश के देवता यथा सूर्य, सविता, मित्र, पूषा, विष्णु, मित्र, वरुण आदि,
  • अन्तरिक्ष के देवता मया-इन्द्र, वायु, पर्जन्य तथा 
  • पृथ्वी के देवता यथा-अग्नि, सोम आदि। 

कालान्तर में इन देवी-देवताओं की मूर्ति के रूप में उपासना की जाने लगी। इन देवी-देवताओं में ऊंच-नीच का कोई प्रश्न नहीं था। जो देवता जिस क्षेत्र का होता था उस क्षेत्र में ही उसे प्रधान समझा जाता था।

इन देवी-देवताओं को दयालुता, सर्वज्ञता, उदारता, अपार शक्ति, निश्छलता, अमरता आदि दैवी गुणों से विभूषित माना गया था। 

उनकी दया की प्राप्ति के लिये इनकी आराधना की जाती थी जो कि प्रार्थनाओं एवं यज्ञों द्वारा होती थी। ये देवी-देवता सद् एवं असत् व्यवहार के लिये क्रमशः वरदान व दण्ड देते थे।

वैदिक धर्म में विभिन्न देवताओं को सन्तुष्ट व प्रसन्न करने के लिये भिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान किया गया जो कि कालान्तर में अत्यन्त जटिल, दुरूह एवं रूढ़िवादी हो गये।

प्रश्न-19. बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य क्या हैं?

उत्तर-गौतम बुद्ध ने संसार के निरीक्षण द्वारा अपने अनुयायियों को चार सत्यों का उपदेश दिया, जो इस प्रकार हैं- 

  • दुःख, 
  • दुःख का कारण, 
  • दुःख का दमन, 
  • दुःख के शमन का मार्ग।

दूसरे शब्दों में. उन्होंने यह बताया कि जीवन में कष्ट है, इस कष्ट का मूल कारण जन्म एवं मृत्यु है तथा इस कारण को नष्ट करके इस कष्ट से छुटकारा पाया जा सकता है। कष्ट का कारण है भौतिक वस्तुओं के सुख भोगने की वासना या तृष्णा। 

यह तृष्णा ही मानव के जन्म और मृत्यु का कारण है। जब तृष्णा या जीवन का मोह मनुष्य में नहीं रहता, तभी आत्मा के लिये निर्वाण प्राप्ति करना सम्भव हो सकता है। तृष्णा के विनाश के लिये बुद्ध भगवान ने अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया।

 

प्रश्न-20. जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या हैं?

उत्तर-जैन धर्म के अधिकांश नियम व सिद्धान्त बौद्ध धर्म से मिलते-जुलते हैं, जो इस प्रकार हैं- 

(i) पंच अणुव्रत-

गृहस्थों के लिये धर्म पालन का प्रमुख अंग पाँच अणुव्रतों का पालन है। इन व्रतों के पालन की पर्याप्त आवश्यकता जैन धर्म में समझी गयी है। ये पाँच अणुव्रत इस प्रकार हैं- 

  • अहिंसा,
  • सत्य, 
  • अस्तेय,
  • अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य। 
(ii) त्रिरत्न

जैन धर्म के अन्तर्गत सम्यक् चारित्र्य, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन ये ‘त्रिरत्न’ हैं। 

(iii) अहिंसा परमोधर्मः –

यद्यपि अहिंसा के के लिये बौद्ध धर्म को महत्त्व दिया जाता है, किन्तु जैन धर्म की अहिंसा भावना को बौद्ध धर्म नहीं पा पाता।

इस धर्म के अनुसार अहिंसा की भावना कर्म से ही नहीं मन और वचन से भी सम्बन्ध रखती है। जड़ और चेतन दोनों में प्राण की कल्पना के कारण अहिंसा का साम्राज्य मानव एवं पशु जगत ही नहीं, बल्कि वनस्पति जगत तक विस्तृत किया गया है। 

(iv) कर्म का महत्त्व-

जैन धर्म में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। 

(v) चार शिक्षाव्रत-

इस धर्म में तप को विशेष महत्त्व दिया गया है, आत्मा को विकारों से रहित रहने के लिये तपस्या जैनियों की दृष्टि से अधिक महत्त्व की है। 

(vi) तप की प्रधानता

जैन धर्म के अन्तर्गत गृहस्थों के लिए चार शिक्षाव्रत पालन करने के लिये बताये गये हैं 

  • वेशविरति, 
  • सामयिक व्रत, 
  • पौषयोपवास तथा
  • अतिथि संविभाग आदि।

 

प्रश्न-21. जनजातीय समस्याओं के समाधान हेतु एक उचित नीति की आवश्यकता समझाइये।

उत्तर-इस सन्दर्भ में केन्द्र एवं राज्य सरकारों को संयुक्त एवं उचित नीति का निर्माण करना चाहिए। 

जनजातीय समूह पर जो भी योजना लागू की जाय, उसका पूर्व परीक्षण करना भी आवश्यक है। जनजातीय नीति को स्थानीय समस्याओं से सम्बन्धित होना चाहिए क्योंकि सभी जनजातियों के लिए एक सामान्य नीति कारगर नहीं हो सकती है। 

किसी भी नीति को जनजातियों पर बलात् थोपना भी अच्छे परिणाम नहीं देगा, अत उसे जन-सहयोग से ही सम्पन्न करना चाहिए। आदिवासियों से सम्बन्धित कल्याणकारी नीतियों में उनके आर्थिक हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी आवश्यक है क्योंकि उनकी निर्धनता ही सारी समस्याओं की मूल जननी है।

 उनकी समस्याएँ अत्यधिक जटिल मानवीय समस्याएँ हैं, जिनका समुचित निदान प्रशासकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं समाज- वैज्ञानिकों के संयुक्त प्रयास/साधनों से ही किया जा सकता है।

अन्त में, सरकार को यह भी देखना होगा कि जनजातियों पर व्यय किया जानेवाला धन कहीं कुछ ही लोग तो हड़प नहीं कर रहे हैं।

 

Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester – समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न-22.  “भारतीय जनजातियाँ अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं।” स्पष्ट कीजिए। 
अथवा 
भारतीय जनजातियों की मुख्य समस्याएँ क्या हैं?

उत्तर-प्राचीन काल से भारतीय जनजातियाँ एकान्त जीवनयापन में सन्तुष्ट रही हैं। पहले उनकी समस्याएँ प्रकृतिजन्य थीं, जिन्हें वे कठिन परिश्रम, सामूहिक भावना और भाग्यवादिता से। हल कर थे। परसंस्कृतिग्रहण या सभ्यता लेते के कारण आज उनके समक्ष विभित्र सामाजिक समस्याएँ खड़ी हो गयी हैं, यथा

  • युवा-गृहों का पतन, कन्या मूल्य का प्रचलन, बाल-विवाह का प्रचलन, सामाजिक संगठन पर दूषित प्रभाव।
  • आर्थिक समस्याएँ– बेकारी एवं निर्धनता में वृद्धि, कृषि का पिछड़ापन, त्रऋणग्रस्तता में वृद्धि, वन-सम्पत्ति एवं खनिज सम्पदा से सम्बन्धित समस्याएँ, सस्ती मजदूरी की प्राप्ति।
  • सांस्कृतिक समस्याएँ – लोक कलाओं का ह्रास, भाषायी समस्याओं में वृद्धि, विभिन्नताओं एवं असमानताओं का जन्म, धार्मिक समस्याओं में वृद्धि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ, 
  • राजनैतिक एवं अन्यान्य समस्याएँ, आदि।

 

प्रश्न-23. अनुसूचित जनजाति का अर्थ बताइए।
अथवा
जनजाति से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- साधारणतया जनजाति का तात्पर्य एक ऐसे मानव-समूह से समझ लिया जाता है जिसका रहन-सहन और रीति-रिवाज बहुत आदिम प्रकृति का हो।

वास्तविकता यह है कि सुनी सुनाई बातों के आधार पर हम एक जनजातीय समुदाय को जितना आदिम अथवा असभ्य समझ लेते हैं, व्यावहारिक स्थिति इससे बहुत भिन्न है। 

जनजातियों को ‘आदिवासी’ अथवा ‘वन्य जाति’ शब्द से केवल इसलिए सम्बोधित किया जाता है कि यह मानव की आदिकालीन संस्कृति के प्रतिनिधि हैं।

डी० एन० मजूमदार के शब्दों में, “जनजाति परिवारों का एक ऐसा समूह है जिसका एक सामान्य नाम होता है. जिसके सदस्य एक निश्चित क्षेत्र में निवास करते हैं, एक सामान्य भाषा बोलते हैं तथा विवाह और व्यवसाय के विषय में कुछ विशेष नियमों का पालन करते हैं।

“लिण्टन (Linton) के अनुसार, “साधारणतया जनजाति अनेक भ्रमणशील झुण्डों का एक समूह है जो एक भू-भाग पर रहता है तथा जो अपनी सांस्कृतिक समानताओं, निकट सम्पर्क तथा सामाजिक हितों के आधार पर एकता से बंधा रहता है।”

 

प्रश्न-24. जनजाति की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।

उत्तर- जनजातियों की विशेषताएँजनजातियों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

  • जनजातियाँ सभ्य समाज से दूर घने जंगलों के बीच निवास करती हैं। इनका अपना एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र होता है।
  • जनजाति की अवधारणा के अन्तर्गत हम आदिम परिवार या परिवारों के समूह को सम्मिलित करते हैं।
  • जनजातियों की अपनी एक विशिष्ट भाषा होती है।
  • इनकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है जिसके आधार पर एक जनजाति अपने को दूसरों से या अन्य समाजों से अपने को भिन्न करती हैं।

 

प्रश्न-25. जाति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-वर्तमान में भारतवर्ष में लगभग 3,000 जातियाँ और उपजातियाँ हैं। हट्टन के अनुसार, जातियों के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक सेना की आवश्यकता होगी। 

‘जाति’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘कास्ट’ शब्द का हिन्दी अनुवाद है। अंग्रेजी के Caste शब्द की व्युत्पत्ति पुर्तगाली भाषा के Caste शब्द से हुई है जिसका अर्थ- प्रजातीय तत्त्व, नस्ल या पैतृक गुणों से लिया जाता है। 

हिन्दी में ‘जाति’ शब्द संस्कृत भाषा की ‘जन्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ उत्पन्न होना या उत्पन्न करना है। इस दृष्टि से जाति का अर्थ जन्म से समान गुणों वाली वस्तुओं से है।

जाति शब्द की उत्पत्ति का पता सन् 1665 में ग्रेसीया डी० ओरेटा नामक विद्वान् ने लगाया। आपके पश्चात् फ्रांस के अब्बे डुब्बाये ने इसका प्रयोग प्रजाति के सन्दर्भ में किया।

 

प्रश्न-26. जाति की परिभाषाएँ दीजिए।

उत्तर-विभिन्न विद्वानों ने जाति को परिभाषित करने का प्रयास किया है। कतिपय प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं—

  • मजूमदार एवं मदान के अनुसार, “जाति एक बन्द वर्ग है।”
  • कूले के शब्दों में, “जब एक वर्ग पूर्णतः आनुवंशिकता पर आधारित होता है, तब हम उसे ‘जाति’ कहते हैं।”
  • सर हरबर्ट के अनुसार, “जाति परिवारों या परिवारों के समूह का एक संगठन है, जिसका कि सामान्य नाम है, जो एक काल्पनिक पूर्वज मानव या देवता से सामान्य उत्पत्ति का दावा करता है, एक ही परम्परात्मक व्यवसाय करने पर बल देता है और एक सजातीय समुदाय के रूप में उनके द्वारा मान्य होता है, जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने के योग्य हैं।”

 

प्रश्न-27. जाति-व्यवस्था की विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
अथवा
 जाति-प्रथा की विशेषताएँ बताइए। 
अथवा
जाति-व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

उत्तर- एन० के० दत्ता एवं इरावती कर्वे ने जाति की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है-

  • एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते।
  • प्रत्येक जाति में दूसरी जातियों के साथ खान-पान के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध होते हैं।
  • अधिकांश जातियों के पेशे निश्चित होते हैं।
  • जातियों में ऊँच-नीच का एक संस्तरण होता है, जिसमें ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। 
  • सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर आधारित है।

 

प्रश्न-28. भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था के महत्त्व की विवेचना कीजिए। 
अथवा 
जाति-व्यवस्था के गुण लिखिए।

उत्तर-जाति व्यक्ति के लिए ही नहीं, प्रत्युत् सम्पूर्ण जाति-समुदाय के लिए भी अनेक कार्य करती है। कतिपय प्रमुख कार्य निम्नानुसार हैं-

(i) धार्मिक भावना की रक्षा-  प्रत्येक जाति के धार्मिक विधि-विधान होते हैं। जाति के सदस्य समर्पण-भाव से इनकी रक्षा करते हैं। यह जाति ही है, जो जनता के धार्मिक जीवन में उसके सदस्यों की स्थिति को निश्चित करती है।

(ii) रक्त की शुद्धता बनाये रखना- एक जाति के व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करते हैं. इससे रक्त की शुद्धता बनी रहती है और अन्य जातियों के रक्त-दोष नहीं आ पाते हैं।

(iii) सामाजिक स्थिति का निर्धारण- प्रत्येक जाति अपने समुदाय के लिए जाति-संस्तरण में निश्चित स्थिति को निर्धारित करती है।

(iv) संस्कृति की रक्षा– प्रत्येक जाति की अपनी एक संस्कृति होती है। इसमें उस जाति विशेष का ज्ञान, कार्य-कुशलता, व्यवहार आदि आते हैं। ये सब जाति में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होते रहते हैं। वयस्क सदस्य अपने नये सदस्यों को ये सब गुण सिखा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जाति अपनी संस्कृति की स्थिरता को बनाये रखती है।

 

प्रश्न-29. जाति और वर्ग में भेद कीजिए।
अथवा 
जाति और वर्ग में अन्तर।

उत्तर-जाति और वर्ग के अन्तरों को हम निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं-

  • जानि-प्रणाली एक बन्द वर्ग है जहाँ वर्ग-प्रणाली एक मुक्त वर्ग है। जाति में जन्म से सामाजिक स्तर निर्धारित होता है और किसी अन्य जाति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता। वर्ग-प्रणाली में मनुष्य की असमानताएँ मान्य होती हैं और उनकी उन्नति के लिए समान अवसर दिये जाते हैं। व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में अपने प्रयास के द्वारा प्रवेश कर सकता है।
  • जाति में व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है। नीची जाति के व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के बावजूद भी उन्नति का अवसर नहीं दिया जाता। परन्तु वर्ग में अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार समाज के शीर्ष पर पहुँच सकता है।
  • जाति-प्रणाली में बहुत हद तक पेशा जन्म से निश्चित हो जाता है परन्तु वर्ग-व्यवस्था में स्वेच्छा के अनुसार पेशा चुना जा सकता है।
  • जाति-व्यवस्था में जीवनयापन के सभी कार्यों तथा आचरण को एक निश्चित नियम के अनुसार पूरा करना पड़ता है। खाना, पीना, पूजा, विवाह, शिक्षा प्राप्ति आदि सभी के लिए निश्चित नियम बने हैं, परन्तु इस तरह की व्यवस्था वर्ग-व्यवस्था में नहीं है।

 

प्रश्न-30. जाति-व्यवस्था के दोषों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा 
जाति व्यवस्था की हानियाँ लिखिए।

उत्तर-आधुनिक सन्दर्भ में जाति-व्यवस्था के मुख्य दोष निम्न प्रकार हैं-

  • सामाजिक गतिशीलता में बाधक-  जाति- व्यवस्था में व्यक्ति की प्रस्थिति तथा व्यवसाय जन्म द्वारा निश्चित रहते हैं। व्यक्ति अपनी इच्छा से व्यवसाय का चयन नहीं करता।
  • वैयक्तिक उपलब्धियों की उपेक्षा– जाति-प्रया में किसी व्यक्ति की प्रस्थिति तथा भूमिका जन्म द्वारा निश्चित रहती है। कोई भी व्यक्ति कितना ही योग्य हो, किन्तु उसकी प्रस्थिति उस जाति के अनुसार निश्चित है जिसमें उसका जन्म हुआ है। इस प्रकार जाति-व्यवस्था व्यक्तिगत उपलब्धियों की उपेक्षा करती है।
  • संकीर्णता का विकास– जाति-व्यवस्था व्यक्ति को जाति की सीमा में आबद्ध करती है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति में अपनी जाति के प्रति अन्धभक्ति और निष्ठा का विकास होता है। इस अन्धभक्ति के फलस्वरूप जातिवाद की समस्या का उदय हुआ है।
  • राजनीतिक एकता में बाधक– जाति-व्यवस्था समाज को विभिन्न जातीय समूहों में विभाजित करती है। लोग अपनी जाति के स्वार्थ के लिए समाज तथा राष्ट्र के हित की उपेक्षा करते हैं।

 

प्रश्न-31.  “जाति एक बन्द वर्ग है।” विवेचना कीजिए।

उत्तर-जाति की निम्नलिखित विशेषताओं के आधार पर हम समझ सकते हैं कि जाति एक बन्द वर्ग हैं- 

  • एक जाति के सदस्य जाति के बाहर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नाहीं कर सकते हैं। 
  • दूसरी जाति के सदस्यों के साथ खाने-पीने पर भी प्रतिबन्ध होना है।
  • अनेक जातियों में कुछ निश्चित पारम्परिक व्यवसाय होता है। 
  • जातियों में संस्तरणात्मक श्रेणियों होती हैं जिनमें ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोपरि होती है। 
  • मनुष्य की जाति का निर्णय जन्म से होता है। 
  • एक जाति के सदस्यों को दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण कर लेने पर पूर्ण प्रतिबन्ध होता है।

 

प्रश्न-32. विवाह की परिभाषाएँ दीजिए।
अथवा 
विवाह को परिभाषित कीजिए।

उत्तर-विवाह के सम्बन्ध में प्रमुख विद्वानों की कुछ परिभाषाएँ निम्नानुसार हैं- 

  • गिलिन एवं गिलिन के अनुसार, “विवाह एक प्रजननमूलक परिवार की स्थापना द्वारा स्वीकृत विधि है।” 
  • लोवी के शब्दों में, “विवाह उस स्पष्ट रूप से स्वीकृत संगठन को व्यक्त करता है जो इन्द्रिय सम्बन्धी संतोष के पश्चात् भी स्थिर रहता है एवं पारिवारिक जीवन का आधार बनता है।” 
  • लूसी मेयर के कथनानुसार, “विवाह स्त्री-पुरुष का ऐसा योग है, जिससे स्वी से जन्मा बच्चा माता-पिता की वैध सन्तान माना जाय।”

 

प्रश्न-33. विवाह का सामाजिक महत्त्व क्या है?
अथवा 
विवाह के सामाजिक कार्य कौन-कौन से हैं?

उत्तर-विवाह प्रेम की पराकाष्ठा है। विवाह के सामाजिक कार्य का महत्त्व निम्नानुसार है- 

  • सन्तानोत्पत्ति और पालन-पोषण की व्यवस्था विवाह संस्था का प्रमुख कार्य सन्तान को जन्म देना, वैधता प्रदान करना, उसके पितृत्व का निर्धारण करना और उनके पालन-पोषण की व्यवस्था करना है। यदि इस विवाह संस्था द्वारा सन्तान को जन्म देने का कार्य पूरा नहीं होता, तो सृष्टि की यह निरन्तरता समाप्त हो जाती है।
  • यौन संतुष्टि प्रदान करना-विवाह संस्था दो विषमलिंगियों को यौन सन्तुष्टि प्रदान करती है। इसके द्वारा व्यक्ति की जैविकीय और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
  • यौन सम्बन्धों को व्यवस्थित करना-यौन सन्तुष्टि मानव की प्रमुख आवश्यकताओं में से एक है। व्यक्ति यदि स्वतन्त्र और नियमित रूप से इस इच्छा की सन्तुष्टि करने लगे, तो इससे संघर्षों में वृद्धि होगी, साथ ही अनैतिकता बढ़ने से समाज का संगठन भी समाप्त हो सकता है। विवाह इस स्थिति से व्यक्ति और समाज की रक्षा करता है तथा अनेक प्रतिबन्धों एवं नियमों के अन्तर्गत व्यक्ति को यौन सन्तुष्टि का अधिकार प्रदान करता है।

 

प्रश्न-34. “हिन्दू विवाह एक संस्कार है।” स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-परिवार मानव समाज की एक आधारभूत इकाई है। यह स्त्री-पुरुष के आवश्यक सम्बन्धों पर आधारित है। अतएव स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्धों के लिए प्रत्येक समाज में कोई न कोई संस्थात्मक व्यवस्था होती है। विवाह इसी व्यवस्था का एक मान्य स्वरूप है। 

दूसरे शब्दों में, विवाह यौन सम्बन्धों को स्थापित करने का एक सामाजिक और सांस्कृतिक रूप है। सम्भवतः इसी कारण भारतीय शास्त्रकारों ने विवाह तथा गृहस्थ जीवन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। मानव-जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) में काम की पूर्ति विवाह द्वारा ही होती है। इसी के द्वारा मनुष्य अपने पितृ ऋण स मुक्त हो सकता है। 

डॉ० कपाड़िया के अनुसार, “हिन्दू विवाह स्त्री-पुरुष के बीच धर्म के पालन की दृष्टि से एक ऐसा संस्कार है जो जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों की धारणा पर आधारित है।” 

डॉ० कपाड़िया ने आगे लिखा है कि “हिन्दू विवाह को इसलिए एक संस्कार माना जाता है क्योंकि यह तभी पूर्ण समझा जाता है जब कुछ पवित्र मन्त्रों द्वारा किन्हीं रीतियों का पालन किया जाय।”

 

प्रश्न-35.हिन्दू विवाह के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना कीजिए। अथवा हिन्दू विवाह के उद्देश्य क्या हैं?

उत्तर-हिन्दू विवाह के उद्देश्य तथा आदर्श के बारे में धर्मशास्त्रों द्वारा अनेक मतों की प्रतिस्थापना की गयी है। ऋग्वेद के अनुसार, विवाह का उद्देश्य गृहस्थ होकर देवों के लिए यज्ञ करना तथा सन्तान उत्पन्न करना है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, व्यक्ति पति-पत्नी द्वारा गर्भ में पुत्र के रूप में जन्म लेता है। 

इस कारण स्वी को ‘जाया’ कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, व्यक्ति तब तक अपूर्ण है जब तक कि विवाह करके सन्तान को जन्म नहीं देता है। इसी कारण पत्नी को अद्धांगिनी कहा गया है।

मनुस्मृति के अनुसार, सन्तानोत्पत्ति, धर्म, आनन्द, सेवा तथा पूर्वजों की स्वर्ग-प्राप्ति पत्नी पर निर्भर है। उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम हिन्दू विवाह के उद्देश्यों को निम्न श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं- 

  • धर्म, 
  • प्रजा, 
  • रति।

ये तीनों महत्ता के क्रम में रखे गये हैं। धर्म को सबसे प्रमुख माना गया है और रति को सबसे कम महत्त्वपूर्ण माना गया है।

 

प्रश्न-36.अनुलोम विवाह पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
अथवा
कुलीन विवाह के विषय में बताइए।
अथवा
अनुलोम विवाह क्या है?

उत्तर-अनुलोम या कुलीन विवाह-अनुलोम या कुलीन विवाह उस विवाह को कहते हैं जिसमें पुरुष उच्च वर्ग का और स्त्री निम्न वर्ण की होती है।

अर्थात् इस प्रकार के विवाह में ऊंची जाति के पुरुष नीची जातियों की स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं। 

के० एम० कपाड़िया ने लिखा है कि “इस नियम के अनुसार एक ब्राह्मण अपने वर्ण तथा अन्य तीनों वर्षों की स्वी से विवाह कर सकता है। क्षत्रिय अपने वर्ण तथा अन्य दो वर्ण से अपने लिए पत्नी का चुनाव कर सकता है।

वैश्य केवल दो वर्षों से ही पत्नी ले सकता है और शूद्र केवल अपने ही वर्ण में से जीवन-साथी सकता है।” मनु ने भी अनुलोम विवाह को मान्य ठहराया है। का चुनाव कर

 

प्रश्न-37. प्रतिलोम विवाह पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

उत्तर-प्रतिलोम विवाह-प्रतिलोम विवाह के अन्तर्गत नीची जातियों के पुरुष ऊंची जातियों की स्त्रियों से विवाह करते हैं। 

डॉ० राधाकृष्णन् ने लिखा है, “प्रतिलोम विवाह में निम्न वर्ण का लड़का उच्च वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता था और उससे उत्पन्न सन्तान किसी भी वर्ण में नहीं रखी जाती थी। उनको निषाद या चाण्डाल कहा जाता था।”

इस तरह के विवाह वैदिक युग में प्रचलित थे लेकिन बाद में स्मृतिकारों ने इसका घोर निषेध किया है। मनु ने भी इस प्रकार के विवाह की निन्दा की है।

स्मृतिकारों ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि यदि शूद्र उच्च वर्ण की स्त्री से सम्बन्ध करे तो उसे सार्वजनिक स्थान पर लाकर कुत्तों से नुचवा देना चाहिए।

 

प्रश्न-38. धर्म की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
अथवा
धर्म को परिभाषित कीजिए।

उत्तर-धर्म-धर्म मानव जीवन का ऐसा सर्वव्यापक स्थायी एवं शाश्वत तत्त्व है जिसे सम्यक् रूप से समझे बिना हम समाज के रूप को ठीक प्रकार से नहीं समझ पायेंगे।

वर्तमान मानव ने विज्ञान के सहारे अपने पर्यावरण पर काफी नियन्त्रण प्राप्त कर लिया है।

इसका परिणाम यह हुआ कि कई समाज या तो धर्म-निरपेक्ष हो गये हैं या धर्म में रुचि नहीं रखते और धार्मिक विश्वासों की वैधता को स्वीकार नहीं करते।

फिर भी धर्म आज भी एक सार्वभौमिक सामाजिक तथ्य बना हुआ है। धर्म मानव का अलौकिक शक्ति से सम्बन्ध जोड़ता है।

इसका सम्बन्ध मानव की भावनाओं, श्रद्धा एवं भक्ति से है। धर्म मानव के आन्तरिक जीवन को प्रभावित नहीं करता वरन् उसके सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करता है।

सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका का उल्लेख करने से पूर्व धर्म के अर्थ एवं परिभाषा को जान लेना आवश्यक है।

धर्म का अर्थ एवं परिभाषा सामान्य अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग अलौकिक शक्ति में विश्वास के लिए किया जाता है। विभिन्न विद्वानों ने धर्म को इस प्रकार से परिभाषित किया है-

टायलर के अनुसार, “धर्म आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास है।” टायलर की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि धर्म में अलौकिक शक्ति की कल्पना की जाती है और पूजा, आराधना या कर्मकाण्ड द्वारा उसमें विश्वास व्यक्त किया जाता है।

 

प्रश्न-39. धर्म के प्रमुख लक्षणों की विवेचना कीजिए।

उत्तर- धर्म की विशेषताएँ (लक्षण)-

विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर धर्म की निम्नांकित विशेषताएँ या मौलिक लक्षण प्रकट होते हैं-

  • अलौकिक शक्ति में विश्वास– धर्म की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि धर्म में यह विश्वास किया जाता है कि विश्व में कोई न कोई अलौकिक एवं दिव्य शक्ति है जो मानव से श्रेष्ठ है। यह शक्ति ही प्रकृति, मानव जीवन एवं समस्त विश्व का संचालन करती है। यह अलौकिक शक्ति साकार या निराकार हो सकती है।
  • धार्मिक क्रियाएँ– मानव अपने धार्मिक विश्वास को विभिन्न धार्मिक क्रियाओं, जैसे पूजा- पाठ, कर्म-काण्ड, यज्ञ, हवन एवं बलि आदि के द्वारा व्यक्त करता है। यही कारण है कि प्रत्येक धर्म में अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित बाह्य क्रियाएँ पायी जाती हैं। कुछ धार्मिक क्रियाएँ तो ऐसी होती हैं जिन्हें सामान्यतः सभी व्यक्ति कर सकते हैं, किन्तु कुछ के लिए धार्मिक विशेषज्ञों, जैसे पण्डे, पुजारी,पादरी, मुल्ला आदि का सहयोग लिया जाता है।
  • पवित्रता की धारणा- धर्म और धर्म से सम्बन्धित सभी वस्तुओं, क्रियाओं, पुस्तकों, प्रतीकों आदि को पवित्र माना जाता है। दुर्खीम का मत है कि धर्म पवित्रता एवं अपवित्रता में भेद करता है। जो चीजें धर्म से सम्बन्धित होती हैं, वे सदैव पवित्र मानी जाती हैं। यही कारण है कि हम मूर्ति, मन्दिर, कर्म-काण्ड की वस्तुओं एवं पूजा-पाठ को पवित्र मानते हैं।

 

Sociology Most Important Questions for BA/Bsc/B.Com 2nd Semester – समाजशास्त्र महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न-40. धर्म के तीन प्रकार्य लिखिए।

उत्तर-धर्म के तीन प्रकार्य निम्न प्रकार हैं-

  • सामाजिक संगठन का आधार-

    किसी भी समाज का संगठन इस पर निर्भर करता है कि उसके सदस्य समाज के आदर्शों, मानक मूल्यों एवं विश्वासों के अनुसार ही आचरण करें। धर्म ही वह शक्ति है जो कि व्यक्ति को पाप से दूर रहने व पुण्य करने की प्रेरणा देता है। ईश्वर का भय दिखलाकर धर्म व्यक्ति को नियन्त्रित एवं संगठित रखता है।

  • सामाजिक नियन्त्रण का साधन- आदिम ग्रामीण तथा सरस समाजों में तो धर्म सामाजिक नियन्त्रण का सबसे प्रभावकारी अनौपचारिक साधन रहा है। आज सामाजिक जटिलता बढ़ने के कारण तथा ज्ञान-विज्ञान के विकास के कारण व्यक्ति की धार्मिकता में कमी अवश्य आई है किन्तु अभी भी जहाँ नियन्त्रण के सभी औपचारिक साधन असफल होते हैं वहाँ धर्म ही प्रभावकारी सिद्ध होता है।
  • सामाजिक एकता का विकास-

     सामान्य धार्मिक क्रियाओं में भाग लेने तथा सामान्य विश्वासों के कारण सदस्यों के मस्तिष्क में समान भावना पैदा होती है जो भाई-चारे को पैचाकर सामाजिक एकता को दृढ़ता प्रदान करती है। धर्म का कार्य ही एक धर्म के मानने वालों की एकता के सूत्र में बाँधना होता है।

 

प्रश्न-41. मानव जीवन में धर्म का क्या महत्त्व है?

उत्तर-मानव जीवन में धर्म का महत्त्व मानव जीवन में धर्म के महत्त्व निम्नलिखित हैं- 

  • अनुशासनात्मक व समाजीकरण– धार्मिक संस्कार औपचारिक होने के साथ-साथ कुछ सीमा तक निषेधात्मक और प्रावरोधी भी होते हैं, इसलिये ये संस्कार आवश्यक रूप से संन्यास अथवा तपस्या अर्थात् यतित्ववाद का रूप भी रखते हैं। इसी भाँति धर्म सामाजिक जीवन में अनुशासन लाता है और व्यक्तियों को सामाजिक जीवन जीने की तैयारी करने में सहायता देता है। धार्मिक संस्कारों से जुड़े अनेक व्रत, निषेध, कठोर नियम आदि इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं।
  • सामाजिक नियन्त्रण-कानून और धर्म समाज में सामाजिक नियन्त्रण के दो सबसे अधिक शक्तिशाली साधन हैं। धर्म केवल अनुशासन ही पैदा नहीं करता वरन् एक संगठित मठ होने के नाते वह अपने सदस्यों पर बाह्य नियंत्रण भी लगाता है। विभिन्न समाजों में धर्माचार्यों द्वारा न्यायालयों की भाँति आरोपों को सुनकर और विवादों पर निर्णय देकर दण्ड देने की प्रथा रही है। 
  • पुनरुजीवन देने वाला-धर्म समाज के वर्तमान को उसके भूतकाल से जोड़ता है। इससे एक निरन्तरता बनी रहती है और समाज अपनी मर्यादाओं तथा परम्पराओं को स्थायी बनाये रखता है। यह स्थायित्व सजग और अटल है। दुर्खीम के शब्दों में- “ये संस्कार कुछ निश्चित विचारों एवं संवेगों को जगाने के लिये, वर्तमान को भूतकाल से जोडने के लिये अथवा व्यक्ति समूह से जोड़ने के लिये कार्य करते हैं।”

 

प्रश्न-42. वर्ग से आप क्या समझते हैं?
अथवा
सामाजिक वर्ग को परिभाषित कीजिए।

उत्तर-सामाजिक वर्ग का तात्पर्य उन व्यक्तियों के समूह से होता है जिनकी किसी समाज में समान स्थिति होती है। जब समाज में कुछ लोगों में एक सामान्य समानता होने के कारण उनकी स्थिति में समानता होती है तो इन समान स्थिति प्राप्त व्यक्तियों के समूह को वर्ग कहते हैं। 

उदाहरण के लिये, हमारे देश में उच्चकोटि के राजनीतिज्ञों, अधिकारियों, पूँजीपतियों, कलाकारों इत्यादि के उच्चकोटि के कार्यों के परिणामस्वरूप समाज में उनकी ऊँची स्थिति समझी जाती है। 

इन सब समान स्थिति वाले लोगों में से जो एक सामाजिक समूह बनता है उसे वर्ग कहते हैं। चूंकि इस वर्ग के सदस्यों की समाज में ऊँची स्थिति होती है, अतः इस वर्ग को ‘उच्च वर्ग’ कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक स्थिति के लोगों के एक समूह को सामाजिक वर्ग कहते हैं।

 

प्रश्न-43. वर्ग की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर-ये विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

  • स्थिति समूहों का उतार-चढ़ाव– जिन समाजों में वर्ग-व्यवस्था होती है, उन समाजों में ऊँची-नीची स्थितियों के व्यक्ति समूह होते हैं। इस प्रकार स्थिति समूहों में एक उतार-चढ़ाव होता है। 
  • ऊँच-नीच की भावना या मनोवृत्ति– प्रत्येक धर्म के सदस्य अपने दूसरे वर्गों के सदस्यों के प्रति ऊँच-नीच की भावना या मनोवृत्ति रखते हैं। 
  • उप-वर्ग– प्रत्येक वर्ग में कुछ अन्य उप-वर्ग भी पाये जाते हैं। जैसे, धनी वर्ग में विभित्र आय के व्यक्ति समूहों के अलग-अलग वर्ग होना।

 

प्रश्न-44. संयुक्त परिवार की परिभाषाएँ कीजिए। 
अथवा 
संयुक्त परिवार की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-संयुक्त परिवार प्रथा को विभिन्न विद्वानों ने निम्नानुसार परिभाषित किया है-

  •  श्रीमती इरावती कर्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है, जो सामान्यतः एक ही घर में रहते हैं, जो एक ही रसोईघर में बना भोजन करते हैं, जो सम्पत्ति के सम्मिलित स्वामी होते हैं तथा जो सामान्यतया पूजा में भाग लेते हैं और जो किसी-न-किसी प्रकार से एक-दूसरे के रक्त सम्बन्धी होते हैं।” 
  • एम० एन० श्रीनिवास के मतानुसार, “वह गृहस्थ समूह, जो प्रारम्भिक परिवार से बड़े होते हैं और जो एक-दूसरे से सम्पत्ति, आय और परस्पर अधिकारों तथा कर्त्तव्यों द्वारा बंधे होते हैं।”
  •  डॉ० दुबे के अनुसार, “यदि कोई मूल परिवार एक साथ रहते हैं और उनमें निकट का नाता हो, एक ही स्थान पर भोजन करते हैं और एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करते हों, तो उन्हें या उनके सम्मिलित रूप को संयुक्त परिवार कहा जा सकता है।”

 

प्रश्न-45. हिन्दू संयुक्त परिवार की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए। 
अथवा 
संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर-संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • सामान्य निवास– संयुक्त परिवार में कई छोटे-छोटे परिवार होते हैं और इसके सदस्य एक निवास स्थान पर रहते हैं, जिसे वे बड़ा घर कहते हैं। प्रत्येक छोटे परिवार के लिए एक या दो कमरे अलग हो सकते हैं, परन्तु रसोई और पूजा आदि के लिए सामान्य कमरा ही होता है। पूजा,त्योहार एवं उत्सव आदि के अवसर पर सभी सदस्य अपने पैतृक घर में ही एकत्र होते हैं। 
  • बड़ा आकार– हिन्दू संयुक्त परिवार में पिता, पुत्र, उसके पुत्र और इनसे सम्बन्धित स्त्रियों और अन्य नाते-रिश्तेदारों का समावेश होता है। इसलिए इसका आकार साधारणतः बड़ा ही होता है।
  • रक्त-सम्बन्ध से सम्बन्धित- परिवार के सभी सदस्य परस्पर रक्त सम्बन्धी होते हैं, किन्तु पत्नियाँ विवाह सम्बन्धी होती हैं। एक संयुक्त परिवार में तीन या अधिक पीढ़ी के लोग सामूहिक रूप से निवास करते हैं।

 

प्रश्न-46. संयुक्त परिवार प्रणाली के गुणों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-सामाजिक प्रकार्य या लाभ-संयुक्त परिवार के प्रमुख सामाजिक कार्य या लाम निम्नलिखित हैं-

  • सामाजिक बीमा-संयुक्त परिवार का संगठन ही कुछ इस प्रकार का होता है कि वह अपने सदस्यों के लिए एक बीमा कम्पनी के रूप में कार्य करते हैं, क्योंकि शारीरिक या मानसिक असमर्थता या दुर्घटना आदि होने पर वह अपने प्रत्येक सदस्य की रक्षा करता है। बीमार पड़ने पर सेवा-सुश्रूषा मिलती है।
  • बूढ़ों, विधवाओं और अनाथों के लिए आदर्श स्थान-संयुक्त परिवार से निर्बल तया अनाथ व्यक्तियों को बड़ा सहारा मिलता है। पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री तथा उसके बच्चों का पालन- पोषण संयुक्त परिवार ही करता है।
  • बच्चों के व्यक्तित्व के विकास का आदर्श स्थान संयुक्त परिवार बालकों के व्यक्तित्व के समुचित विकास का एक आदर्श स्थान है। इसमें रहते हुए बच्चे उदारता, सहिष्णुता, सेवा.सहयोगिता, प्रेम, सद्भाव और आज्ञाकारिता का पाठ पढ़ते हैं।
  • व्यक्तिवादिता पर नियन्त्रण-संयुक्त परिवार व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं, अपितु सबके सामान्य हितों की रक्षा के लिए हुआ करता है।

 

प्रश्न-47. संयुक्त परिवार के आर्थिक प्रकार्य या लाभ बताइए।

उत्तर-आर्थिक प्रकार्य या लाभ-सामाजिक कार्यों एवं लाभों के अतिरिक्त संयुक्त परिवार के कुछ आर्थिक कार्य या लाभ भी हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  • मितव्ययता- संयुक्त परिवार में सम्मिलित आय और सम्मिलित खर्च होने से कम खर्च में अधिक लोगों का भरण-पोषण होता है, साथ ही कुछ बचत भी अवश्य हो जाती है, फिजूलखर्ची नहीं होती है, वस्तुओं का दुरुपयोग नहीं होता है।
  •  पारिवारिक धन का समान वितरण– संयुक्त परिवार की व्यवस्था के अन्तर्गत आय और सम्पत्ति पर किसी विशेष व्यक्ति का अधिकार नहीं होता, जिसके कारण आय और सम्पत्ति पर सबका समान अधिकार न होने पर भी उससे सभी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं।
  • सम्पत्ति के विभाजन से बचाव– संयुक्त परिवार में चूंकि सभी सदस्य सम्मिलित रहते हैं, इसलिए वहाँ सम्पत्ति का विभाजन नहीं होता है। इस प्रकार संयुक्त सम्पत्ति का उपयोग व्यापार किसी धन्धे में करके सम्पत्ति में और अधिक वृद्धि की जा सकती है।
  • श्रम-विभाजन की व्यवस्था– संयुक्त परिवार में व्यक्ति की योग्यता के आधार पर कार्य सौंपा जाता है। स्त्रियाँ घर का काम करती हैं, जबकि पुरुष वर्ग बाहर के कार्य देखता है। परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कार्य करता है। इससे श्रम का उचित विभाजन होने से जन-शक्ति का समुचित उपयोग होने से विशेष लाभ की सम्भावना रहती है।

 

प्रश्न-48. संयुक्त परिवार के दोषों या हानियों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-संयुक्त परिवार के दोषों या हानियों का निम्नानुसार विवेचन किया जा सकता है-

  • कुशलता में बाधक- चूंकि संयुक्त परिवार में सारा बोझ कमानेवाले दो-चार व्यक्तियों पर होता है, अतः उनको कठिन परिश्रम करना पड़ता है और उनका स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण उनकी कुशलता या कार्य-क्षमता दिन-प्रतिदिन घटती जाती है और ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी ही संसार से कूच कर जाते हैं। संयुक्त परिवार का यह सबसे बड़ा दोष है।
  • गतिशीलता में बाधक-  संयुक्त परिवार के साथ और उसके वातावरण में रहकर लोग इतने घुल-मिल जाते हैं कि स्नेह, प्रेम और प्रीति का बन्धन उनको चारों तरफ से घेर लेता है जो उनकी प्रगति में बाधक सिद्ध होती है।
  • सामान्य निर्धनता-चूँकि संयुक्त परिवार में प्रायः कमानेवाले सदस्यों की संख्या कम होती है और आश्रितों की संख्या अधिक, इसलिए मध्यमवर्गीय परिवार में सदैव निर्धनता बनी रहती है और धन का संचय सम्भव नहीं होता है।
  • अकर्मण्य व्यक्तियों में वृद्धि– संयुक्त परिवार दरिद्रों व बेकारों की समस्या हल करने की अपेक्षा अकर्मण्य व दूसरों पर आश्रित व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि करता रहता है। यह दोष भी सबको बुरा लगता है।

 

प्रश्न-49. भारत में जनजातियों के न्यून विकास के कारणों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।

उत्तर-भारत में जनजातियों के न्यून विकास के कारण निम्न है-

  • शिक्षा सम्बन्धी समस्या-  जनजातियों में प्रायः शिक्षा का अभाव है। भारत के जरजाति समुदाय में शिक्षा की अपनी परम्परागत एवं अनौपचारिक पद्धति प्रचलित रही है। सरकार द्वारा उठायें गये शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम बहुत सफल नहीं हो पाये हैं। इसीलिए जनजातियों में शैक्षिक पिछड़ापर आज भी मौजूद है।
  • निर्धनता– जनजातियों की जीविका का आधार जंगल है। जंगल से उनको फल, फूल एवं लकड़ी प्राप्त होती थी। जंगली जानवरों का शिकार करके अपनी उदर की पूर्ति किया करते थे। किन्तु आज जंगल खत्म होते जा रहे हैं। उनके समक्ष रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है, वे और अधिक निर्धन बनते जा रहे हैं। निर्धनता के कारण वे अपना विकास नहीं कर पा रहे हैं।
  • स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ– स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण जनजातियों का आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा है। जनजातियाँ नई सभ्यता के सम्पर्क में आने के कारण शराब का सेवन करने लगे हैं जोकि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। निर्धनता के कारण वे अपना इलाज नहीं करा पाते हैं। इसीलिए वे विकास के मार्ग में पीछे छूट जाते हैं।

 

प्रश्न-50. भारत में निर्धनता और बेरोजगारी का जनसंख्या वृद्धि से क्या सम्बन्ध है?

उत्तर-भारत में निर्धनता और बेरोजगारी का जनसंख्या वृद्धि से गहरा सम्बन्ध है। कुछ लोग निर्धनता को भी जनसंख्या वृद्धि का कारण मानते हैं क्योंकि निर्धन लोग बच्चों को आर्थिक दृष्टि से उपयोगी मानते हैं। इनके पास मनोरंजन के साधनों का अभाव पाया जाता है तथा यौन सुख ही एक मात्र साधन रह जाता है। 

इस स्थिति में जनसंख्या का बढ़ना स्वाभाविक है। जनसंख्या में वृद्धि होने से बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है। भारत जैसे विशाल देश में सभी लोगों को रोजगार मिलना संभव नहीं है। बेरोजगारी जनसंख्या वृद्धि का परिणाम होती है। बेरोजगारी और निर्धनता को दूर करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण पाना अत्यावश्यक है।

 

प्रश्न-51. पिछड़े वर्ग से क्या अभिप्राय है?

उत्तर-पिछड़े वर्गों से हमारा अभिप्राय वास्तव में हरिजनों और उच्च जातियों के बीच मध्यम जातियों से है। हमारा अभिप्राय ‘पिछड़े वर्ग’ शब्द के वृहद् परिप्रेक्ष्य से नहीं है। ‘पिछड़े वर्ग’ पिछड़े हैं क्योंकि वे शिक्षा, सरकारी सेवाओं, व्यवसायों और व्यापार आदि में पीछे रहे हैं।

किन्तु गत वर्षों में उन्होंने आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में प्रगति की है। पिछड़े वर्ग लघु जमींदार है जो जीविका के लिए मुख्यतः कृषि पर ही आश्रित हैं। वे संख्या में बहुत अधिक हैं परन्तु सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से एक अखण्डित समूह नहीं हैं। मण्डल आयोग के अनुसार पिछड़े वर्ग भारत की कुत जनसंख्या का 52 प्रतिशत हैं।

 

प्रश्न-52.पिछड़े वर्ग की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
अन्य पिछड़े वर्ग की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?
अथवा
भारत में अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याओं की विवेचना कीजिए।

उत्तर-प्रमुख समस्याएँ– देश में भूमिहीन श्रमिकों अर्थात् खेतिहर मजदूरों, सीमान्त किसानों एवं छोटे किसानों अर्थात् ग्रामीण पिछड़े वर्गों को आज भी अनेक समस्याएँ पीड़ित करती हैं यथा-

  •  रोजगार की समस्या– इस वर्ग को नियमित रूप से रोजगार की प्राप्ति नहीं होती है. अ उन्हें बेकारी एवं अल्प रोजगार की स्थिति में रहना पड़ता है। इनका सम्पूर्ण जीवन, गरीबी, शोषण बेकारी, उत्पीड़न और अनिश्चित होता है। कुछ स्थानों पर तो इनकी दशा गुलामों जैसी है, क्योंकि शक्तिशाली भू-स्वामी इनसे बेगार लेते हैं तथा बदले में बहुत ही कम मजदूरी देते हैं। रोजगार की दृष्टि से अस्थायी मजदूर तो और भी बुरी दशा में हैं। उन्हें वर्ष में तीन से छह माह बेकार रहना पड़ता है। कृषि कार्यों में मशीनीकरण के कारण भी इनके रोजगार के अवसर कम होने जा रहे हैं।।।
  • अल्प आय– खेतिहर मजदूर वर्ष में एक बहुत बड़े भाग में बेकार रहते हैं, फिर भी कार्य वो दिनों में उन्हें बहुत ही कम मजदूरी प्राप्त होती है। आज भी इनको कुछ मजदूरी नकवी और कुछ वस्तुओं के रूप में दी जाती है। यद्यपि सरकार द्वारा उनके लिए ‘न्यूनतम मजदूरी’ निश्चित की गयी है, किन्तु उसका पालन बहुत कम किया जाता है।
  •  ऋणग्रस्तता– कम आय या अनिश्चित आय अधिकांश खेतिहर मजदूरों को ऋण-जाल में फंसा देती है। इनको इनको अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने तक के लिए भी ऋण लेने को बाध्य होना पड़ता है। इन्हीं के लिए कहा जाता है कि वे ऋण में जन्मते, त्रऋण में पलते और ऋण में ही मरते हैं। इसके साथ-साथ ऋण इन्हें विरासत में भी प्राप्त होता है। कई स्थानों में इनकी दशा गुलामों से भी बुरी हो जाती है।
  • निम्न जीवन-स्तर– रोजगार की विषम समस्या, कम आय, ऋणग्रस्तता आदि के फलस्वरूप इनका जीवन-स्तर अत्यधिक निम्न होता है। यह अपनी आय का लगभग 77 प्रतिशत भोजन पर, 6 प्रतिशत वस्त्रों पर, 8 प्रतिशत ईंधन एवं प्रकाश पर तथा 9 प्रतिशत सेवाओं तथा अन्यान्य मदों पर व्यय करते हैं। पौष्टिक पदार्थों के न ग्रहण करने से, अस्वस्थ आवास से, अशिक्षा से इनका स्वास्थ्य निरन्तर खराब होता रहता है।

 

प्रश्न-53. पिछड़े वर्ग से सम्बन्धित मण्डल आयोग की सिफारिशों की विवेचना कीजिए।

उत्तर-मण्डल आयोग-राष्ट्रपति के एक अन्य आदेश के आधार पर 1 जनवरी, 1979 ई० को ‘द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ की नियुक्ति हुई। इस आयोग के अध्यक्ष वी० पी० मण्डल थे, अतः इस आयोग को ‘मण्डल आयोग’ के नाम से जाना जाता है। पहले आयोग की तरह इस आयोग को चार कार्य सौंपे गये

  • सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने के लिए कसौटियाँ तय करना।
  • उनके विकास के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों के बारे में सुझाव देना।
  • नियुक्तियों में में उनके लिए आरक्षण के प्रावधान की आवश्यकता पर विचार करना तथा
  • आयोग द्वारा एकत्रित तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना।

मण्डल आयोग ने पिछड़े वर्गों के विकास के लिए अनेक उपायों का सुझाव दिया जिनमें से मुख्य सुझाव इस प्रकार हैं-

(1) सार्वजनिक क्षेत्र तथा सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त करनेवाले सभी प्रतिष्ठानों में पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये जायें।

(2) पदोन्नति के लिए 27 प्रतिशत के सिद्धान्त को लागू किया जाय।

(3) पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को वैज्ञानिक, प्राविधिक और व्यावसायिक श्रेणी की सभी संस्थाओं में 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये जायें।

(4) पिछड़े वर्गों में साक्षरता बढ़ाने के लिए एक समयबद्ध योजना लागू की जाय।

 

प्रश्न-54. अनुसूचित जातियों से क्या अभिप्राय है?
अथवा 
दलित से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-भारत के संविधान में ‘अछूत’ जातियों को ‘अनुसूचित जातियों’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इसका उद्देश्य उनको भेदभाव, शोषण और अपकर्ष से सुरक्षा प्रदान करना और उनके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए प्रावधान करना है। 

सरकार में स्वतन्त्र भारत त में नौकरियों, पदों, शैक्षणिक सुविधाओं में आरक्षण और राज्य की विधानसभाओं और लोकसभा के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों तथा स्थानीय संस्थाओं में मनोनयन की नीति अपनायी। 

स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान डॉ० बाबा साहब अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के सम्मान और शान के लिए लड़ाई करके प्रसिद्धि प्राप्त की। ब्रिटिश शासन ने साम्प्रदायिक पंचाट द्वारा ‘अछूतों’ को राजनैतिक प्रतिनिधित्व देना स्वीकार किया। 

महात्मा गाँधी ने इस (पंचाट) को स्वीकार नहीं किया क्योंकि मुसलमान इस तरह की माँग पहले ही कर चुके थे और इसके कारण पृथकतावाद अधिक विकसित तथा सामाजिक सम्बन्धों का सम्प्रदायीकरण और अधिक हो जाता। 

गाँधीजी ने साम्प्रदायिक पंचाट के विरुद्ध आमरण अनशन किया। पूना समझौते के अन्तर्गत पंचाट वापस लिया गया और गाँधीजी ने अपना अनशन तोड़ दिया। यह दलील दी गयी थी कि हरिजन हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के अंग हैं और इसलिए इसी व्यवस्था के ढाँचे के अन्तर्गत हरिजनों की दशा सुधारने का कार्य किया जाना था। 

यह कहना होगा कि अम्बेडकर ने संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष के रूप में करोड़ों दलित-हरिजनों के उत्थान के लिए संवैधानिक प्रावधानों को संविधान में शामिल कराने के लिए अथक् प्रयास किये। 

‘अछूतों’ को हरिजन का नाम गाँधीजी ने दिया था जिसका अर्थ था कि वे ‘ईश्वर की सन्तान हैं’ और उनको विशेष उपचार की आवश्यकता थी। गाँधीजी ने हरिजन नाम की एक पत्रिका भी इन लोगों की दुर्दशा को प्रकाश में लाने के लिए आरम्भ की।

 

प्रश्न-55. अनुसूचित जातियों की समस्याओं को हल करने के लिए सरकार ने क्या प्रयास किये हैं?

उत्तर-अनुसूचित जातियों की समस्याओं के समाधान हेतु सरकार ने विभिन्न महत्त्वपूर्ण कदम उठाये हैं। इन्हें संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ उनकी समस्याओं के समाधान हेतु निम्नलिखित उपाय भी किये गये हैं- 

  • लोकसभा तथा राज्य विधानमण्डलों में उनके लिए आरक्षित स्थानों की व्यवस्था,
  • सेवाओं में आरक्षण की सुविधाएँ,
  • अनुसूचित जातियों के क्षेत्रों के प्रशासन हेतु कल्याण व सलाहकार एजेन्सियों की स्थापना, 
  • संवैधानिक संरक्षणों में क्रियान्वयन की जाँच हेतु संसदीय समिति का गठन, 
  • राज्यों में कल्याण विभागों की स्थापना, जो कि जातीय कल्याण कायों की देख-रेख करते हैं।

 

प्रश्न-56. भारत में अनुसूचित जातियों की समसामयिक समस्याओं की विवेचना कीजिए।
अथवा 
अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?

उत्तर- अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्याएँअनुसूचित जातियों की निम्न समस्याएँ हैं-

  • अस्पृश्यता की समस्या– भारत में अनुसूचित जातियों के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या अस्पृश्यता की रही है। उच्च जाति के व्यक्ति कुछ व्यवसाय, जैसे- चमड़े का काम, सफाई का काम, कपड़े धोने का काम करनेवाले व्यक्तियों को अपवित्र मानते थे। उनके साथ भोजन-पानी का सम्बन्ध नहीं रखते थे। इन्हें लोग अछूत कहते थे। अनुसूचित जाति अर्थात् नीची जाति की छाया पड़ना तक बुरा माना जाता था। पूजा-पाठ के स्थानों पर इनके जाने पर प्रतिबन्ध था। कहीं-कहीं पर तो अन्तिम संस्कार के लिए भी इनका स्थान अलग-अलग निर्धारित किया गया था। इस प्रकार अनुसूचित जातियों को अस्पृश्यता की समस्या का सामना करना पड़ता था।
  • निर्धनता की समस्या– अनुसूचित जाति के लोग आर्थिक दृष्टि से बहुत अधिक पिछड़ी स्थिति में रहे हैं। इनके पास स्वयं के साधन, खेती, व्यापार आदि नहीं थे। अतः अधिकांशतः इन्हें किसानों के यहाँ अथवा अन्य स्थानों पर मजदूरी करनी पड़ती थी। कृषि के क्षेत्र में इन्हें फसल का बहुत कम ही भाग मिल पाता था तथा मजदूरी भी नाममात्र को मिल पाती थी। आज भी अनुसूचित जाति के लोग निर्धनता की रेखा के नीचे अपना जीवनयापन कर रहे हैं।
  • अशिक्षा की समस्या– अनुसूचित जाति के लोग अज्ञानी व अशिक्षित हैं। परिवार के छोटे-छोटे बच्चों को भी काम पर लगा दिया जाता है जिससे वे स्कूल से दूर रहते हैं। सामान्य जनसंख्या के अनुपात में इनमें साक्षरता भी आधी है। इनके बच्चे यदि स्कूल में जाते भी हैं तो उनमें आधे प्राथमिक स्तर पर ही रुक जाते हैं। अशिक्षा और अज्ञानता सभी बुराइयों का आधार होती है, इस कारण अनुसूचित जाति के लोगों में अनेक प्रकार की बुराइयों ने घर कर लिया है।

 

प्रश्न-57.अस्पृश्यता क्या है?

उत्तर-दलितों/अछूतों की परिभाषा अस्पृश्यता के आधार पर की गई है। प्रायः अनुसूचित जातियों का तात्पर्य उन जातियों से है जिनका उल्लेख सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सुविधाएँ दिलाने के लिए संविधान की अनुसूची में हुआ है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 में यह लिखा है। कि अस्पृश्यता का उन्मूलन कर दिया गया है और किसी भी रूप में इसका प्रयोग वर्जित है। 

अस्पृश्यता पर आधारित किसी भी अयोग्यता की क्रियान्विति कानून के अनुसार दण्डनीय अपराध होगा। डॉ० शर्मा के अनुसार, “अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाय और उसे पवित्र होने के लिए कुछ कृत्य करने पड़ें।”

 

प्रश्न-58. हिन्दू महिलाओं की किन्हीं दो वैवाहिक समस्याओं पर प्रकाश डालिए। 
अथवा 
दहेज प्रथा।
अथवा 
भारत में ग्रामीण महिलाओं की मुख्य समस्याओं पर संक्षेप में चर्चा कीजिए। 

उत्तर- हिन्दू महिलाओं की मुख्य दो समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

1.बाल-विवाह–  प्राचीन समय से ही देश में बाल-विवाह का प्रचलन रहा है। हमारे धर्म-ग्रन्थों में रचनाकार ‘बाल-विवाह’ के पक्ष में रहे हैं तथा कम आयु में ही लड़की का विवाह कर देना माता- पिता का धार्मिक कर्तव्य माना गया है। 

भारत की धर्मभीरु जनता धार्मिक ग्रन्थों से प्रेरणा प्राप्त कर छोटे-छोटे अबोध बालकों का विवाह करती रही है और आज भी ग्रामों में ऐसे विवाह बहुत सम्पन्न होते हैं। 

महाराष्ट्र में तो दो गर्भवती स्त्रियाँ पहले से ही यह तय कर लेती हैं कि उनमें से एक के लड़का और दूसरे के लड़की हुई तो उन दोनों का परस्पर विवाह करवा दिया जायेगा। 

राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में तो दूध पीते बच्चों को गोद में उठाकर और थाली में बिठाकर शादी करवा दी जाती है। सामान्यजन की तो बात ही क्या कई विधान-निर्माता भी बाल-विवाह सम्पन्न कराते रहे हैं। 

कम आयु में विवाह होने, सन्तानें होने एवं पारिवारिक दायित्व आ जाने के कारण, स्त्रियों का स्वास्थ्य गिर जाता है और वे रुग्ण बनी रहती हैं, परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु दर बढ़ जाती है और औसत जीवन अवधि घट जाती है। कम आयु में विवाह के कारण जन्म-दर में भी वृद्धि हो जाती है और दुर्बल सन्तानें पैदा होती हैं।

2.दहेज प्रथा–  देश में दहेज एक गम्भीर समस्या है। इसके कारण माता-पिता के लिये लड़कियों का विवाह एक अभिशाप बन गया है।

जीवन-साथी चुनने का सीमित क्षेत्र, बाल-विवाह की अनिवार्यता, कुलीन विवाह, शिक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा, धन का महत्त्व, सामाजिक प्रथा एवं प्रदर्शन तथा झूठी शान आदि के कारण दहेज लेना और देना आवश्यक हो गया है। 

दहेज के कारण न जाने कितनी स्त्रियों को जला दिया गया, यातनाएँ दी गयीं और आत्महत्याएँ हुई हैं। आए दिन पत्र- पत्रिकाओं में हम दहेज के कारण स्त्रियों की हत्याओं एवं उन्हें जला देने के समाचार पढ़ते हैं। 

दहेज ने ही बालिका-वध, पारिवारिक विघटन, ऋणग्रस्तता, निम्न जीवन-स्तर, बहुपत्नी प्रथा, बेमेल-विवाह, अनैतिकता, अपराध, भ्रष्टाचार एवं अनेक मानसिक बीमारियों को जन्म दिया है। दहेज के कारण अनेक परिवारों में पुत्री के जन्म को अपशकुन माना जाता है।

3.शिक्षा की समस्या–  भारत में आज भी ग्रामीण महिलाएँ नगरीय महिलाओं की तुलना में कम पढ़ी-लिखी हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ग्रामीण जनसंख्या आज भी रूढ़िवादिता से ग्रसित है। वे आज भी बालिकाओं को चूल्हा-चक्की तक सीमित रखना चाहते हैं और लड़कियों को घर से बाहर निकालना अपनी मर्यादा के खिलाफ समझते हैं।

 

प्रश्न-59. महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु किन्हीं दो सामाजिक सुधारकों के प्रयासों की विवेचना कीजिए।

उत्तर-महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास निम्न प्रकार है-

  • राजा राममोहन राय के प्रयास– स्त्रियों की स्थिति सुधारने में राजा राममोहन राय का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने सती प्रथा आन्दोलन, विधवा पुनर्विवाह निषेध तथा कुलीन विवाह के विरुद्ध आवाज उठाई और सफल भी हुए। उनके इन प्रयासों से स्त्रियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ।
  • ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयास– राजा राममोहन राय के कार्य को आगे बढ़ाते हुए ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने जीवन पर्यन्त स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने के लिए अनवरत प्रयास किया। विद्यासागर के प्रयास से 1846 में सरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम को पारित किया कुलीन विवाह प्रथा, बहुपत्नी-विवाह प्रथा इत्यादि के विरुद्ध भी कार्य किये। उन्होंने 1849 में बैथ्यू महोदय की सहायता से एक कन्या विद्यालय भी खोला। इस प्रकार स्त्रियों की स्थिति ऊँची करने के लिए उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये।

 

प्रश्न-60. महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाने वाले कारक क्या हैं?

उत्तर- महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाने वाले कारकमहिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रीय आन्दोलन– भारतीय नेताओं ने स्त्रियों को भी राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। महात्मा गाँधी और मोतीलाल नेहरू के आह्वान पर अनेक स्त्रियाँ स्वतन्त्रता संग्राम में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर कूद पड़ीं। इस प्रकार वे घर की चहारदीवारी से निकलकर राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने लगीं।
  • विभिन्न सुधारवादी आन्दोलन– ब्रिटिश काल से ही अनेक भारतीय समाज सुधारकों का ध्यान स्त्रियों की दयनीय दशा की ओर आकर्षित हो गया था। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि प्रमुख समाज-सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने के विशेष प्रयास किये और अनेक महत्त्वपूर्ण नियम बनाये।
  • विभिन्न संगठनों द्वारा किये गये प्रयास-विभिन्न महिला संगठनों ने भी स्त्रियों की दशा सुधारने में विशेष योगदान दिया है। इन संगठनों में महिलाओं की राष्ट्रीय समिति तथा कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक समिति आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखित हैं।
  • शिक्षा का प्रयास-  स्वतन्त्रता के पश्चात् स्त्री-शिक्षा का तीव्रता से विकास हुआ। प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक स्त्री-शिक्षा में द्रुत गति से वृद्धि हुई।

 

प्रश्न-61. ‘महिला सशक्तीकरण’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-महिला सशक्तीकरण से तात्पर्य आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रत्येक स्तर पर निर्णयन की प्रक्रिया में महिलाओं को सम्मिलित करने की है। 

महिला सशक्तीकरण की दिशा में कोई भी पहल उस समय तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि महिला शिक्षित, प्रशिक्षित, कौशलयुक्त कामगार तथा रोजगाररत न हो। 

आय सृजनकारी गतिविधियों में स्थान पाकर महिलाओं में स्वावलम्बन की भावना जागृत होती है, जब वे किसी व्यावसायिक संस्थान में एक प्रमुख की हैसियत से अपनी व्यावसायिक दक्षताओं का प्रदर्शन करती हैं, तो स्वयं के शक्तिसम्पन्न होने का एहसास तो दिलाती ही हैं अन्य सहयोगी और अधीनस्थ महिलाओं के लिए ‘रोल मॉडल’ का भी कार्य करती हैं। प्रत्येक महिला एक सम्भाव्य ‘शक्ति’ है। उसमें नेतृत्व एवं प्रबन्धन की क्षमता का अपार भण्डार है। 

बस उसे स्वावलम्बी बनने के लिए भारत की पूर्व प्रधानमंत्री (स्व०) श्रीमती इन्दिरा गाँधी का वाक्य धर्मसूत्र के रूप में जीवनपर्यन्त प्रयुक्त करना चाहिए- ‘दूरदृष्टि, कड़ी मेहनत और पक्का इरादा’।

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प्रश्न-62. भारत में जनाधिक्य या जनसंख्या विस्फोट के दो कारण बताइए।

उत्तर-ये दो कारण अधोलिखित हैं-

  • बाल-विवाह-भारत में जनसंख्या या जन्म-दर के बढ़ने का सबसे पहला कारण है यहाँ पर बाल-विवाहों का प्रचलन होना। सन् 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में 15 वर्ष एवं इससे अधिक उम्र के पुरुषों में से केवल 20.3 प्रतिशत पुरुष अविवाहित थे, जबकि इंग्लैण्ड में सन् 1931 में इसी उम्र के 36.6 प्रतिशत पुरुष अविवाहित थे। इसी अवधि में इसी उम्र की स्त्रियाँ भारत तथा इंग्लैण्ड में क्रमशः 6.4 तथा 36.2 अविवाहित थीं। सच तो यह है कि बाल-विवाह के परिणामस्वरूप जिस उम्र में भारत के युवक तथा युवतियाँ तीन-चार लड़कों को जन्म दे देती हैं उसी उम्र में इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में उनका विवाह होता है।
  • अधिक विवाह-भारत में सन् 1951 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 41.1 प्रतिशत भाग अविवाहित है। इनमें से 37.13 प्रतिशत की उम्र 14 वर्ष से अधिक नहीं है। इस प्रकार विवाहों के आधिक्य के कारण जन्म-दर या जनसंख्या का बढ़ना स्वाभाविक है।

 

प्रश्न-63. जनसंख्या वृद्धि को रोकने के किन्हीं दो उपायों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-ये दो उपाय निम्न प्रकार हैं-

  • शिक्षा का प्रसार– जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिये सभी दृष्टिकोणों से शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षा के प्रसार से लोगों के सन्तानोत्पादन सम्बन्धी धार्मिक तथा सामाजिक अन्धविश्वास समाप्त हो जायेंगे और वे बच्चों को भगवान का प्रसाद न समझ कर पति-पत्नी के योग का फल समझने लगेंगे। इसके अतिरिक्त सन्तति निरोध के साधनों का उपभोग अधिक मात्रा में होने लगेगा। लोग सन्तानोत्पत्ति सम्बन्धी प्राणिशास्त्रीय नियमों से परिचित होकर उनसे लाभान्वित होने लगेंगे।
  • परिवार नियोजन– परिवार नियोजन के स्वरूप तथा महत्त्व के सम्बन्ध में डॉ० राधाकृष्णन् ने बम्बई (मुम्बई) में तृतीय ‘अखिल विश्व परिवार नियोजन महासम्मेलन’ के उद्घाटन के समय भाषण में कहा था, “यदि आप अपने पारिवारिक जीवन के स्वास्थ्य और सुख को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो आपको सन्तानोत्पत्ति के समय का खूब सोच-समझ कर निर्णय करना होगा। मैं समझता हूँ कि यह निर्णय करना परिवार नियोजन है।” इस प्रकार परिवार नियोजन का उद्देश्य परिवार के आकार को सीमित करना है तथा अपनी पसन्द से काफी अन्तर में बच्चे पैदा करना है।

 

प्रश्न-64. राष्ट्रीय एकता का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए।
अथवा 
राष्ट्रीय एकीकरण की अवधारणा की व्याख्या
कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण।

उत्तर- राष्ट्रीय एकीकरण की परिभाषा-धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति एवं वर्ग के आधार पर भारत में बहुलता है। इस बहुलता-प्रधान देश की सामाजिक व्यवस्था सोपानीय है, जिसमें असमान प्रस्थितियों वाले समूह और व्यक्ति हैं। 

रोजगार एवं शिक्षा के लिए संसाधनों और अवसरों की विभेदीय पहुँच वाले अनेक प्रस्थिति समूहों के परिणामस्वरूप हमारे सामने अनेक समस्याएँ भी हैं। 

भारत के संविधान में राष्ट्र की ‘अखण्डता’ के बारे में उल्लेख है, परन्तु प्रश्न यह है कि क्या ‘राष्ट्रीय एकीकरण’ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक असमानताओं को बिना हटाये या कम किये प्रोत्साहित किया जा सकता है? 

हम जानते हैं कि ‘पूर्ण सामाजिक व्यवस्था’ कभी हासिल नहीं की जा सकती, क्योंकि वास्तविकता में पूर्ण रूप से एक जैसे लोग मिल नहीं सकते। फिर भी इन अन्तरों के बावजूद, कम लाभान्वित और कमजोर वर्गों के लिए कुछ न्यूनतम संस्थागत उपायों और आधारभूत सुविधाओं को जुटाकर समाज के विभिन्न भागों में एकता, मैत्रीभाव और समरूपता प्राप्त की जा सकती है। 

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राष्ट्रीय विघटन का एकमात्र कारण आर्थिक असमानताएँ और विषमताएँ हैं। जिन समूहों में आर्थिक विषमताएँ कम हैं, उनमें राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या है।

 

प्रश्न-65. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक तत्त्वों का वर्णन कीजिए।

उत्तर- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक तत्त्व- राष्ट्रीयता के विकास में अनेक तत्त्व बाधा पहुंचाते हैं। उन तत्त्वों का विवरण निम्न प्रकार है-

  • जातिवाद-जातिवाद राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक है। जातिवाद की भावना अपनी जाति से प्रेम करना सिखाती है और दूसरी जाति के प्रति घृणा का भाव जाग्रत करती है। जातिवाद का जहर राष्ट्रीय चेतना को समाप्त कर देता है। जातिवाद के कारण ही राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा होने लगती न है और जातीय हितों को महत्त्व दिया जाता है। भारत में जातिवाद की भावना तेजी के साथ बढ़ रही है, जिससे भारतीय एकता को खतरा उत्पन्न हो रहा है। प्रो० श्रीनिवास के अनुसार, “कोई भारत में वे कहीं भी रहे वह जाति के संसार में ही रहता है।” इस प्रकार समाज में जातिवाद का जो प्रभाव स्थापित हो गया है उससे देश की राष्ट्रीय एकता को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
  • साम्प्रदायिकता की भावना-  साम्प्रदायिकता राष्ट्रीयता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इसके अन्तर्गत लोग अपने सम्प्रदाय के लोगों को सर्वोच्च समझते हैं और दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को हीन समझते हैं। विभिन्न सम्प्रदायों में आपस में संघर्ष होते रहते हैं और साम्प्रदायिक भावना में बहकर राष्ट्रीय हितों को भूल जाते हैं। साम्प्रदायिकता भारत की एक भयंकर समस्या है। साम्प्रदायिकता के • कारण ही देश का विभाजन हुआ और आज भी यह समस्या हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए विषबेल बनी हुई है।

 

प्रश्न-66. राष्ट्रीय एकता की बाधाओं को दूर करने के उपाय बताइए।

उत्तर- बाधाओं को दूर करने के उपाय- स्वदेश प्रेम राष्ट्रीयता का मूल आधार है तथा इसका राष्ट्रीय एकता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने विघटनकारी तत्त्वों को दृष्टि में रखते हुए एक शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की, जिससे देश एकता के सूत्र में बंधा रहे, किन्तु फिर भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में अनेक बाधाएँ आयीं। इन बाधाओं को निम्नलिखित प्रयासों द्वारा दूर किया जा सकता है-

  • सभी वर्ग राज्य व्यवस्था में सक्रिय भाग लें-भारत में जहाँ विविध प्रकार के लोग रहते हैं, एकता की स्थापना इसी से हो सकती है कि सभी वर्गों को राजनीतिक सत्ता व अधिकार में भाग दिया जाये और सबको साथ लेकर चला जाय। इसके लिए आवश्यक है कि समाज के सब वर्गों में राजनीतिक चेतना जागृत हो।
  • शिक्षा के क्षेत्र में समुचित व्यवस्था-राष्ट्रीय एकता के लिए शिक्षा के क्षेत्र में समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि विद्यार्थी भारतीय संस्कृति और सभ्यता में रम जाये। किसी भी स्तर पर पाठ्यक्रम में ऐसे अंश नहीं होने चाहिए, जो भाषावाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद को बढ़ावा दें। विश्वविद्यालय स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों और प्राध्यापकों आदि की गोष्ठियाँ आयोजित की जायें, जिसमें वे एक-दूसरे के निकट आयें तथा एकता का मार्ग प्रशस्त हो।
  • सरकारी और सहयोगी संघवाद की रचना हमें संघर्षात्मक और प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रादेशिकता की भावना के स्थान पर सहकारी एवं सहयोगी संघवाद की रचना करनी चाहिए। सहयोगी संघवाद में पारस्परिक मतभेदों को शान्तिपूर्ण वातावरण में दूर कर लिया जाता है। राज्यों के बीच नदी के पानी, सीमा, वित्तीय साधनों और राष्ट्रीय सम्पदा के वितरण को लेकर आन्दोलनात्मक रवैया अपनाना उचित नहीं है।
  • विघटनकारी तत्त्वों पर प्रतिबन्ध-कई संगठन देश में विघटनकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करते हैं और हिंसात्मक आन्दोलन द्वारा अराजकता फैलाते हैं। ऐसे अराजकतावादी तत्त्वों पर यथाशीघ्र नियन्त्रण लगाया जाना चाहिए। लोकतान्त्रिक राजनीति में हिंसा और अराजकता को कोई स्थान नहीं के दिया जाना चाहिए तथा साम्प्रदायिकता, जातीयता और धर्मान्धता का प्रयोग भी रोका जाना चाहिए।

 

प्रश्न-67. साम्प्रदायिकता क्या है?

उत्तर-साम्प्रदायिकता की परिभाषा करते हुए विन्सेण्ट स्मिथ ने कहा- “एक साम्प्रदायिक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक अथवा भाषायी समूह को एक ऐसी पृथक् सामाजिक तथा राजनीतिक इकाई मानता है जिसके हित अन्य समूहों से पृथक् होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं। 

ऐसे ही व्यक्तियों अथवा समूह की विचारधारा को सम्प्रदायवाद या साम्प्रदायिकता कहा जायगा।” साम्प्रदायिकता में समूह के सम्प्रदाय के संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए देश के हितों, राष्ट्रीय उद्देश्यों की भी उपेक्षा कर दी जाती है।

 

प्रश्न-68. साम्प्रदायिकता के प्रमुख कारण क्या हैं?

उत्तर- 

  • मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता– भारत की स्वाधीनता के साथ एक दुःखव घटना भी हुई है-वह है भारत का विभाजन। पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम धार्मिक कट्टरता का परिणाम था, पर पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत में रह रहे मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता उदार नहीं हुई, बल्कि और दृढ़ हुई। वे जामा मस्जिद के इमाम के फतवे पर वोट देते हैं, मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई परिवर्तन नहीं करने देना चाहते, शाहबानो के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। वे स्वयं को राष्ट्र में एक अलग इकाई के रूप में देखते हैं। जब तक भारतीय मुसलमान राष्ट्रहित व देशहित को अपनी सोच का मुख्य उद्देश्य नहीं मानेगा, तब तक साम्प्रदायिकता का हल असंभव है।
  • आर्थिक व शैक्षणिक पिछड़ापन– मुस्लिम समाज का आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ापन उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर करता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् समाज में जिस अनुपात से विभिन्न वर्गों में (चाहे फिर वह हिन्दू धर्म की पिछड़ी जातियाँ ही क्यों न हों) शिक्षा का प्रसार हुआ है. उनका आर्थिक स्तर ऊपर उठा है, उस अनुपात में मुस्लिम सम्प्रदाय में विकास नहीं हुआ। मुस्लिम परिवारों में आज भी महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत अत्यन्त कम है। यही स्थिति आर्थिक क्षेत्र में भी है। शिक्षा के अभाव में मुस्लिम समुदाय ने नौकरियों या उच्च स्तरीय व्यवसाय में सफलता प्राप्त नहीं की। कमजोर आर्थिक स्थिति साम्प्रदायिकता बनाने व बिगाड़ने में मददगार रही। ज्यों-ज्यों आर्थिक विषमताएँ बढ़ीं, दोनों समुदायों के बीच खाई बढ़ी, त्यों-त्यों साम्प्रदायिकता को फैलने में मदद मिली। जेब खाली हो. रोजगार न हो, शिक्षा के अभाव में विचार प्रक्रिया न हो तो कोई भी किसी तरह के भड़कावे में आ सकता है। जब तक मुस्लिम समुदाय की आर्थिक शैक्षणिक स्थिति में बुनियादी बदलाव नहीं आता तब तक साम्प्रदायिक सद्भाव की बात करना निरर्थक है।

 

प्रश्न-70. साम्प्रदायिकता को दूर करने के उपाय बताइए।

उत्तर-साम्प्रदायिकता एक पतनशील समाज का लक्षण है। जहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ के साथ सामूहिक स्वार्थ जुड़ जाता है, वहाँ साम्प्रदायिकता आ जाती है। आज देश में आर्थिक संघर्ष में वर्ग संघर्ष का नहीं, बल्कि धार्मिक संघर्ष का खतरा मंडरा रहा है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। समय रहते इसका उपचार ढूँढ़ना होगा। 

  • भारतीय मुसलमानों को पिछले अनुभवों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज का उदार, सहिष्णु तथा धर्म निरपेक्ष चरित्र ही वास्तविकता है। किसी भी कारण से असुरक्षा की भावना से ग्रसित होकर तीव्र प्रतिक्रिया करना तथा हिंसात्मक गतिविधियाँ करना उचित नहीं है।
  • शिक्षा मानसिक जागरूकता लाती है। शिक्षा से बौद्धिक चेतना बढ़ती है और हम दूसरों के दृष्टिकोण को भी समझ पाते हैं। आर्थिक प्रगति से भी संकीर्ण विचारों से मुक्ति मिलती है। आर्थिक व सामाजिक बदलाव से साम्प्रदायिक गतिविधियों को विराम मिलेगा।
  • राष्ट्रवादी विचारधारा– भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने सम्प्रदाय, धर्म व जाति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय आदर्शों के प्रति क्रियाशील होना होगा। पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीयता के आदर्शों का पतन हुआ है। राष्ट्रीयता का भाव कमजोर हुआ है। इसलिए सभी अलगविवादों से उभरकर राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च मानना होगा। किसी भी विदेशी शक्ति में इतना बल नहीं होगा वह हमारे राष्ट्रीय किं मानदण्डों को हिला सके।

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